Friday 31 July 2020

कमल जोशी के कैमरे में कैद हिमालयी संस्कृति

कमल जोशी के कैमरे में कैद हिमालयी संस्कृति
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

हिमालय केवल एक पहाड़ नहीं बल्कि संस्कृति और सभ्यता का उद्गम स्थल भी है। हिमालय केवल भारत, एशिया को ही नहीं बल्की पूरे विश्व की जलवायु को प्रभावित करता है। भारत के लिए हिमालय का महत्व और भी बढ़ जाता है। हिमालय न केवल भारत के उत्तर में एक सजग परहरी बनकर खड़ा है, बल्कि हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलायें साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोक कर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में आधिक ठंडा होने से बचाती हैं। पुराणों में भी हिमालय का वर्णन किया गया है।
आज हम प्रसिद्ध फोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी के बारे में जानेगे जिन्होंने हिमालयी संस्कृति और सभ्यता को न केवल अपने कैमरे में कैद किया, बल्कि उसे लोगों तक भी पहुंचाया। कमल जोशी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें हमेशा हम सबको एक प्रेरिणा देती रहेंगी। वो कमल जोशी ही थे जिन्होंने फोटोग्राफी को अपना फैशन बना दिया था और अपना सर्वस्व उस पर लगा दिया था। किसी भी घटनाक्रम को लिखने बोलने से अधिक प्रभावशाली तरीका है कि फोटोग्राफ के द्वारा उसे लोगों तक पहुंचाया जाए। वर्ष 2014 में जब मैं कोटद्वार में पत्रकारिता कर रहा था उस दौरान वरिष्ठ नागरिक मंच कोटद्वार की ओर से बालासौड़ में कमल जोशी को अपने कार्यक्रम में बुलाया गया था। जिसमें कमल जोशी ने अपनी पूरी जिंदगीभर की फोटोग्राफी को मॉनिटर से लोगों को दिखाया और उन फोटोग्राफ के बारे में जानकारी भी दी। मैं केवल समाचार एकत्रित करने गया था, लेकिन कमल जोशी की फोटोग्राफी और उनकी जानकारी मुझे वहां से जाने से रोक रही थी। कमल जोशी से मेरे पारिवारिक संबंध तो थे ही लेकिन जब भी टाइम मिलता मैं उन्हें घर पर बुला लेता। वरिष्ठ नागरिक मंच के कार्यक्रम में कमल जोशी द्वारा हिमालय के बारे में बताए गए कुछ अंश आज भी मुझे याद हैं, और वो तस्वीरें भी दिलों दिमाग में छाई हुई हैं। कमल जोशी के कार्यक्रम के कुछ अंश आपके सामने साझा कर रहा हूं। 
कार्यक्रम में कमल जोशी अपनी फोटो को मॉनिटर पर सलाइडों को चलाते हुए बता रहे थे।जिसमें उन्होंने बताया कि हिमालय केवल पहाड़ या दूर से दिखने वाला केवल बर्फ का एक विशाल घर नहीं बल्कि सभ्यता संस्कृति का उदगम स्थल भी है। हिमालय से विश्व की सबसे अधिक नदियां निकलती हैं, साथ ही पानी का सबसे बड़ा भंडार भी हिमलय ही है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण आज हिमालय में बड़े बदलाव आ रहे हैं। जिसमें उन्होंने गोमुख गलेश्यर, जम्मू कश्मीर, लदाख और नेपाल के हिमलाय की फोटो दिखाई। जिसमें ग्लेश्यर लगातार पीछे खिसक रहे हैं। इस जलवायु परिवर्तन का वहां के जीव जन्तुओं पर भी असर पड़ रहा है, वहां की वनस्पति पर भी असर हो रहा है। उन्होंने हिमायली नदियों के बारे में भी जानकारी दी। साथ ही हिमालय से नदियों के उद्गम के बारे में भी बताया। इसके साथ ही बताया कि जैसे ही हिमालय से नदियां आगे बढ़ी वैसे ही नदी किनारे एक सभ्यता और एक संस्कृति ने भी जन्म लिया।  लेकिन जैसे ही नदियां आगे बढ़ी संस्कृति और सभ्यता में भी अंतर आया। जैसे चमोली के अलकनंदा के किनारे बसे गांव या बद्रीनाथ क्षेत्र में बसे भोटिया जनजाति के लोग और उनकी संस्कृति और सभ्यता। वहां के लोग मुख्य रूप से भेड़ पालन करते हैं, खेती अधिक उच्च हिमालयी क्षेत्रों में नहीं होती है। इस लिए वे लोग छह माह बद्रीनाथ और छह माह के लिए निचले इलाकों में आ जाते हैं। उनकी संस्कृति देवता, रहन , सहन आदि सभी विशेष है। वे लोग भेड़ की ऊन से ही कपड़े बनाते हैं। भेड़ की ऊन से बनाया गया दोखा एक प्रकार का गाउन होता है, जिसे बाहर से पहना जाता है। इसे बारिश ठंड आदि से बचा जा सकता है। लेकिन जैसे हम नदी की तलहटी में उतरते हैं, तो वहां का रहन सहन भिन्न हो जाता है। वहां के लोग गांव में स्थाई रूप से निवास करते हैं। इससे और नीचे बढ़ने पर रहन-सहन आदि में फर्क आ जाता है। इस लिए हिमालयी राज्यों की संस्कृति और सभ्यता में आए बदलाव वहां के पर्यावरणीय कारणों से भी प्रभावित हुए हैं। लदाख में जानवरों से बोझा ले जाने के काम में लगाया जाता है। उन्होंने शिवालिक श्रेणी की हिमालयी चोटियों के बारे में बताया। साथ ही हिमालयी गांवों का दौरा कर वहां के लोगों की संस्कृति को अपने कैमरे में कैद किया। उन्होंने पहाड़ी ढलानों पर बुग्यालों, चोटियों मध्य हिमालय और नदी घाटी संस्कृति के बारे में भी जानकारी दी। साथ ही गंगा यमुना जैसी नदियों की महत्ता भी बताई। हिमालय को भारत, नेपाल और चीन में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। लेकिन इस हिमालयी क्षेत्र में एक विशाल सभ्यता और संस्कृति ने जन्म लिया है। भारत में भी उत्तर से लेकर पूर्व तक कई हिमालयी राज्य हैं। इसलिए इस हिमलयी संस्कृति और सभ्यता के संरक्षण के लिए और हिमालय के संरक्षण और संवर्द्धन पर विश्व को सोचना होगा। उनके फोटोग्राफ में हिमालयी गाय चराने वाले बच्चे, सोने के आभूषणों पर वहां की संस्कृति की झलक दिखाने वाली महिलाएं और मजदूर, किसान की फोटो में वहां की संस्कृति झलती है। उन्होंने कई बार अपने साथियों के साथ गांवों की यात्राएं की। पिछले नंदा देवी राजजात पर उनका ब्लॉग हिमालय के उस पार भी रहती है हमारी अनुष्का बेहतरीन हिमालयी युवती की कहानी थी। लेकिन अब वो ब्लॉग भी उपलब्ध नहीं हो पाया। नंदा देवी राजजात हिमायल का एक महाकुंभ है, इसकी संस्कृति और सभ्यता को कमल जोशी ने अपने कैमरे में कैद किया था। इससे पहले उन्होंने मेरे साथ कोटद्वार बेस अस्पताल में अपना स्वस्थ्य परीक्षण कर कुछ दवाएं लेकर राजजात के लिए रवाना हुए थे। अब कमल नहीं उनकी फोटोग्राफी हमेशा हिमालयी राज्यों की संस्कृति और सभ्यता के बारे में हमे जानकारी देती रहेगी और आगे बढ़नी की प्रेरणा देती रहेगी।

जमीदार उमराव सिंह और सुल्ताना डाकू

जमीदार उमराव सिंह और सुल्ताना डाकू
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में नजीबाबाद-कोटद्वार क्षेत्र में सुल्लताना डाकू का खौफ था। कोटद्वार से लेकर बिजनौर यूपी और कुमाऊं तक उसका राज चलता था। बताया जाता है कि सुल्लताना डाकू लूटने से पहले अपने आने की सूचना दे देता था, उसके बाद लूट करता था। लगभग चार सौ साल पूर्व नजीबाबाद में नवाब नाजीबुद्दोला ने किल्ला बनवाया था। बाद में इस पर सुलताना डाकू ने कब्जा कर लिया था। 
उस समय कोटद्वार-भाबर क्षेत्र में जमीदार उमराव सिंह थे। कोटद्वार निवासी आलोक रावत ने बताया उमराव सिंह उनके रिश्तेदार थे, उनकी मां इस बारे में जानकारी देती हैं। उन्होंने बताया कि सुल्लताना डाकू ने करीब 1915 से 20 के बीच कोटद्वार-भाबर के प्रसिद्ध जमीदार उमराव सिंह के घर चिट्ठी भेजी कि हम फलाने दिन उनके घर लूट करने आ रहे हैं। जिससे उमराव सिंह को काफी गुस्सा आया और उन्होंने इसकी सूचना पुलिस को देने की योजना बनाई। भाबर से करीब 20 किमी दूर कोटद्वार में पुलिस थाना था। 
उमराव सिंह ने अपने घर में काम करने वाले एक व्यक्ति को चिट्ठी दी कि इसे कोटद्वार थाने में दे आ। भाबर से कोटद्वार तक उन दिनों सड़क मार्ग नहीं था। लेकिन भाबर से होते हुए कोटद्वार सनेह से कुमाऊं तक कंडी रोड थी। कुछ लोग बताते हैं कि कंडी रोड हिमाचल से हरिद्वार और कोटद्वार से कुमाऊं होते हुए नेपाल तक जाती थी। जो वन विभाग के अंतर्गज आती थी। रोड पर बैल गाड़ी आदि चलती थी। जिसमें बांस काटकर ले जाया जाता था। उमराव सिंह के घर में काम करने वाला भी चिट्ठी लेकर कोटद्वार पुलिस के पास जा रहा था। उमराव सिंह ने पैदल जाने में अधिक समय लगने के कारण उसे अपना घोड़ा दिया था। ताकि वह जल्दी से पुलिस को सूचना दे दे। जैसे वह घर से कोटद्वार घोड़े पर जा रहा था दुर्गापुरी के पास नहर किनारे सुल्लताना डाकू और उसके साथी नहा रहे थे। डाकू और उसके साथी एक विशेष वेशभूषा में होते थे, जो पुलिस की वर्दी की तरह लगती थी। सुल्लताना ने घोड़े पर किसी को जाते देखा तो उसे रोका। उसने कहां कि घोड़ा तो किसी जागीरदार का लग रहा है, लेकिन इस पर नौकर कहां जा रहा है। घोड़े से जा रहे व्यक्ति ने भी सुल्लताना और उसके साथियों को पुलिस जानकर चिट्ठी दे दी और वहां से घर लौट गया। चिट्ठी पढ़ कर सुल्लताना भड़क गया। नौकर के घर पहुंचने पर उमराव सिंह ने पूछा कि चिट्ठी दे दी पुलिस को और तू जल्दी वापस आ गया। उसने बताया कि पुलिस वाले दुर्गापुरी के पास ही मिल गए थे। सुल्लताना भी वहां से सीधे उमराव सिंह के घर पहुंच गया और उन्हें गोली मार दी। अगर उमराव सिंह पुलिस को सूचना न देते और सुल्लताना का कहना मान देते तो शायद उनकी जान बच जाती। उमराव सिंह का कोटद्वार-भावर के विकास में बड़ा योगदान है। उन्होंने कई लोगों को भाबर क्षेत्र में बसाया। आज भी उनके नाम से भाबर क्षेत्र में उमरावपुर जगह है। कोटद्वार क्षेत्र में सुल्लताना की काफी दहसत थी। भाबर के खूनीबड़ गांव में एक बड़ का पेड़ था, लोकउक्ति है कि सुल्लताना लोगों को मारकर उस बड़ के पेड़ पर टांक देता था, जिससे उनकी डर लोगों में बनी रहे। इसी लिए उस गांव का नाम आज भी खूनीबड़ है। 
1923 में तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और आखिरकार 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद ज़िले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया। सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे। इस पूरे मिशन में कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी। नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुक़दमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया। उसे फांसी की सजा सुनाई गई। हल्द्वानी की जेल में 8 जून 1924 को जब सुल्ताना को फांसी पर लटकाया गया तो उसे अपने जीवन के तीस साल पूरे करने बाकी थे।
जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माय इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इंडियाज़ रॉबिन हुड’ में एक जगह लिखा है, ‘एक डाकू के तौर पर अपने पूरे करियर में सुल्ताना ने किसी ग़रीब आदमी से एक कौड़ी भी नहीं लूटी। सभी गरीबों के लिए उसके दिल में एक विशेष जगह थी। जब-जब उससे चंदा मांगा गया, उसने कभी इनकार नहीं किया, और छोटे दुकानदारों से उसने जब भी कुछ खरीदा उसने उस सामान का हमेशा दोगुना दाम चुकाया।’नजीबाबाद में जिस किल्ले पर सुल्लताना ने कब्जा किया था आज भी उसके खंडर है। उस किल्ले के बीच में एक तालाब था। बताया जाता है कि सुल्लताना ने अपना खजाना यहीं छुपाया था। बाद में वहां खुदाई भी हुई पर कुछ नहीं मिला। कुल लोगों का कहना है कि किल्ले के अंदर से सुल्लताना ने नजीबाबाद पुलिस थाने तक सुल्लताना ने सुरंग बनाई थी। जहां बंद होने पर भी वह आसानी से निकल जाता था और जरूरत पड़ने पर वहां से बंदूकें भी लूट लाता था। पुलिस भी उसे पकड़ नहीं पा रही थी। 1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया। उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म ‘सुल्ताना डाकू बनाई, जिसमें मुख्य किरदार दारा सिंह ने निभाया था।

Saturday 18 July 2020

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल" - Himantar

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल" - Himantar: विजय भट्ट जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की. इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की.  कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे. हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की. शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो.  जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की. भारत […]

Friday 17 July 2020

"आजाद" का प्रशिक्षण स्थल ही उपेक्षित!

"आजाद" का प्रशिक्षण स्थल ही उपेक्षित!

ट्रैवलॉक: 
विजय भट्ट वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की।
इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की। 
कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे।
हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की।
शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो। 
जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की।

गुलाम भारत में ये दौर था वर्ष 1930 के अगस्त माह के दूसरे सप्ताह का। जब चंद्रशेखर "आजाद", हजारीलाल, रामचंद्र, छैलबिहारी लाल, विश्वम्भरदयाल और दुगड्डा निवासी उनके साथी क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत दिल्ली से गढ़वाल की ओर चल पड़े। यह सभी भवनी सिंह रावत के दुगड्डा के पास नाथूपुर गांव जा रहे थे। कोटद्वार में रेल से उतर कर सभी दुगड्डा के लिए प्रस्थान करते हैं। दिन का तीसरा प्रहर बीत रहा था। शाम के समय सीला नदी पार कर जंगल के रास्ते सभी आगे बढ़ रहे थे। सुहाने मौसम में पकड़ंडी पर चलते हुए आजाद अपने प्रिय उक्त गीत को गुनगुना रहे थे। 
भवानी सिंह के पिता नाथूसिंह सेना के अवकाश प्राप्त ऑनरेरी कैप्टेन थे।प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स में सराहनीय कार्य के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें दुगड्डा के पास 20 एकड़ भूमि जागीर के रूप में दी थी।1927 में वह अपने पुश्तैनी गांव पंचूर चौंदकोट पौड़ी गढ़वाल को छोड़कर जागीर में बस गए थे। उन्ही के नाम से यहां का नाम नाथूपुर पड़ा। भवानी सिंह उन दिनों दिल्ली हिन्दू कालेज में पड़ते थे। जहां उनकी मुलाकात आजाद और अन्य क्रांतिकारियों से हुई थी। भवानी सिंह ने आजाद का परिचय अपने घर में एक वन विभाग के कर्मचारी के रूप में दिया था।बताया कि वह यहां घूमने और जंगल में शिकार करने आए हैं। इस दौरान आजाद ने अंग्रेजों से छिपकर अपने साथियों के साथ दुगड्डा के जंगल में निशाने बाजी का प्रशिक्षण लिया।एक बार जंगल में गोली चलने की आवाज सुनकर दो वन विभाग के अधिकारी वहां पहुंच गए। उन्होंने पूछा कि यह सब क्या है। तो भवानी सिंह ने कहा कि मैं नाथू सिंह जी का लड़का हूं और ये सब उनके दोस्त हैं। यहां वह निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे हैं। जिसके बाद अफसर वापस लौट गए। दुगड्डा के पास एक दिन साथियों के कहने पर आजाद ने एक कौल के पेड़ पर निशाना लगाया था। वह पेड़ आज भी मौजूद है।जिस पर कई साल तक आजाद की गोली का निशान दिखाई देता रहा।लेकिन पेड़ अब जर्जर हाल में है।
वर्ष 1975 में वन विभाग ने लोनिवि को लैंड ट्रांफर की और दुगड्डा से रथुवाढाब-धूमाकोट मार्ग का निर्माण शुरू हुआ। दुगड्डा से दो किमी की दूरी पर जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया था वह ठीक सड़क के किनारे था। इसके किनारे से एक छोटा नाला जंगल से बहता है। जिस कारण वहां पर लोनिवि की ओर से कॉजवे बनाया गया।जिससे खुदाई से पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। भवानी सिंह के बेटे और हमारे पत्रकार के साथी जगमोहन सिंह रावत बताते हैं, कि कॉजवे के कारण ही पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। 1972 में इस स्थान पर आजाद पार्क बनाया गया था। जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया उसे स्मृति वृक्ष कहा गया।  वर्ष 2005 में आखिर यह पेड़ टूट गया। जिसे बाद में पार्क में खुले में रखा गया। जहां रख रखाव के अभाव में दीमकों ने पेड़ को चट कर दिया। देहरादून वन अनुसंधान की टीम जब वहां गई तो पेड़ अधिक क्षतिग्रस्त होने से वह उसे देहरादून वन अनुसंधान संस्थान नहीं ला पाए।लेकिन 2018 में वन विभाग ने पार्क का सुंदरीकरण कर आजाद की मूर्ति लगाई। पेड़ के लिए भी टिन शेड बनाया लेकिन। आज भी शहीदों की यादों पर बदहाली की धूल पड़ी है। कुछ ही समय में पेड़ नष्ट हो जाएगा। लेकिन पूर्व की सरकारों की ओर से और राज्य गठन के 20 साल बाद भी इस ऐतिहासिक धरोहरों के रख रखाव के लिए कोई ठोस पहल नहीं हुई है। 
हर साल ही आजाद की शहादत दिवस पर दुगड्डा में 27 फरवरी को शहीदी मेले का आयोजन होता है। भवानी सिंह के जन्म दिन 08 अक्तूबर को कार्यक्रम कर इतिश्री हो जाती है। लेकिन जिस मकान में हमें आजादी दिलाने वाले चंद्रशेखर आजाद सहित कई क्रांतिकारी रहे हों, आज भी वह उपेक्षित पड़ा है।स्वतंत्रता दिवस और अन्य राष्ट्रीय पर्व पर हम जश्न मनाकर शहीदों को याद कर इतिश्री कर देते हैं।लेकिन शायद इन सपूतों के निस्वार्थ बलिदान का मोल हम भूलते जा रहे हैं, ऐसा न होता तो उनकी निशानियों पर ऐसी धून न जमी होती। ऐसे ही आजाद की यादों को साझा करने के लिए मैने अपने पत्रकारिता के दौरान जगमोहन सिंह रावत के घर जाकर इन सारी जानकारियों को एकत्रितकर आपके लिए सहेजा है।इसमें कुछ जानकारियों आगे भी अपडेट की जाएगी। 


क्यों आए थे "आजाद" गढ़वाल: 
काकोरी कांड के बाद अंग्रेज आजाद को ढूंढ रहे थे। अंग्रेजों से छिपकर प्रशिक्षण लेकर आगे की रणनीति बनाने के लिए आजाद अपने साथियों के साथ दुगड्डा आ गए थे। कोटद्वार से दुगड्डा की दूरी करीब 19 किमी है। जबकि दुगड्डा से नाथूपुर की दूरी पांच किमी और आजाद पार्क की दूरी दो किमी है। इसी के पास दुगड्डा ब्लॉक मुख्यालय है। अब यह पूरा क्षेत्र लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत आता है।यह रिजर्व फारेस्ट क्षेत्र है। 

नाथूपुर के दो मंजिला मकान में रुके थे आजाद
नाथूपुर में जिस घर में आजाद और उनके साथी रुके थे। वह दो मंजिला लकड़ियों से बना घर आज भी वैसे ही है। भवानी सिंह के बेटे जगमोहन सिंह रावत अब उस घर की देख रेख करते हैं और उसी में रहते हैं।लेकिन सरकार की ओर से इस पर कोई पहल नहीं की गई है।

कीर्ती स्तंभ
दुगड्डा-धूमाकोर्ट मार्ग पर आज भी चंद्र शेहर आजाद का कीर्ती स्तंभ है, जो अब जर्जर हाल में है। लेकिन आजादी की गवाही देने वाले यह ऐतिहासिक धरोहरों का आज जरूरत है तो संरक्षण की।

स्मृति वृक्ष
जिस कौल के पेड़ पर आजाद ने अचूक निशाना लगाया था। आज भी वह जर्जर हाल में एक टिन शेड में आजाद पार्क में रखा गया है।लेकिन आखिर कितने दिन तक उसे हम बचा पाते हैं। 


नाथूपुर में ली थी आजाद ने शरण
नाथूपुर दुगड्डा के पास है। कोटद्वार तक रेल मार्ग था। आगे पैदल ही जाना था। नाथूपुर चारों और से जंगल से घिरा था। जहां किसी को भी आसानी से खोजना नामुकिन था।इसके साथ ही जंगल में निशानेबाजी के लिए सबसे अच्छा था। 


भवानी सिंह रावत 
भवानी सिंह उत्तराखंड के अकेले ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिन्होंने क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ में सम्मलित होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। वे संगठन के प्रधान सेनापति चंद्रशेखर आजाद के बलिदान तक उनके साथ रहे। लेकिन आज लोग उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते और न ही आने वाली पीड़ी को कुछ बता पाते हैं। 


राष्ट्रीय दिवस पर ही शहीदों की याद क्यों ?
कुछ दिन बाद पंद्रह अगस्त आने वाला है। जिसमें तमान सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा आजादी के वीर सपूतों को याद कर फिर उनकी तस्वीरें अगले साल के लिए रख दी जाएंगी। देहरादून परेड ग्राउंड और दिल्ली में भी जश्न के सरकारी बड़े बड़े इंतजाम होंगे। सफेद पोश भी अच्छा भाषण देकर चले जाएंगे। लेकिन देश के लिए निस्वार्थ बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों को शायद हम भूल रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो यू उनकी निशानियों को दीमक चट न करते। उनके कीर्ती स्तंभ धूमिल न होते, स्मृति वृक्ष अपनी बदहाली पर आंसू न बहाता।नाथूपुर का ऐतिहासिक घर बदहाल न होता, ऐसे ही तमान ऐतिहासिक स्थलों को सिर्फ राष्ट्रीय दिवसों पर ही याद न किया जाए।अपने गौरवपूर्ण इतिहास के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए सभी तैयार रहे। यूं सरकार से भी अधिक अपेक्षा लगाता कब तक ठीक है, जब तक तुमारे सपनों को स्मृति वृक्ष की तरह दीमक चट न कर जाएं.....


अगले अंक में फिर मिलेंगे एक नए ट्रैंवलॉग के साथ:
आपके सुझाव और सुधार सादर आमंत्रित हैं?

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल"

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल"

ट्रैवलॉक: 
विजय भट्ट वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की।
इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की। 
कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे।
हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की।
शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो। 
जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की।

भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी। ये दौर था वर्ष 1930 के अगस्त माह के दूसरे सप्ताह का। जब चंद्रशेखर "आजाद", हजारीलाल, रामचंद्र, छैलबिहारी लाल, विश्वम्भरदयाल और दुगड्डा निवासी उनके साथी क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत दिल्ली से गढ़वाल की ओर चल पड़े। यह सभी भवनी सिंह रावत के दुगड्डा के पास नाथूपुर गांव जा रहे थे। कोटद्वार में रेल से उतर कर सभी दुगड्डा के लिए प्रस्थान करते हैं। दिन का तीसरा प्रहर बीत रहा था। शाम के समय सीला नदी पार कर जंगल के रास्ते सभी आगे बढ़ रहे थे। सुहाने मौसम में पकड़ंडी पर चलते हुए आजाद अपने प्रिय उक्त गीत को गुनगुना रहे थे। 
भवानी सिंह के पिता नाथूसिंह सेना के अवकाश प्राप्त ऑनरेरी कैप्टेन थे।प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स में सराहनीय कार्य के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें दुगड्डा के पास 20 एकड़ भूमि जागीर के रूप में दी थी।1927 में वह अपने पुश्तैनी गांव पंचूर चौंदकोट पौड़ी गढ़वाल को छोड़कर जागीर में बस गए थे। उन्ही के नाम से यहां का नाम नाथूपुर पड़ा। भवानी सिंह उन दिनों दिल्ली हिन्दू कालेज में पड़ते थे। जहां उनकी मुलाकात आजाद और अन्य क्रांतिकारियों से हुई थी। भवानी सिंह ने आजाद का परिचय अपने घर में एक वन विभाग के कर्मचारी के रूप में दिया था।बताया कि वह यहां घूमने और जंगल में शिकार करने आए हैं। इस दौरान आजाद ने अंग्रेजों से छिपकर अपने साथियों के साथ दुगड्डा के जंगल में निशाने बाजी का प्रशिक्षण लिया।एक बार जंगल में गोली चलने की आवाज सुनकर दो वन विभाग के अधिकारी वहां पहुंच गए। उन्होंने पूछा कि यह सब क्या है। तो भवानी सिंह ने कहा कि मैं नाथू सिंह जी का लड़का हूं और ये सब उनके दोस्त हैं। यहां वह निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे हैं। जिसके बाद अफसर वापस लौट गए। दुगड्डा के पास एक दिन साथियों के कहने पर आजाद ने एक कौल के पेड़ पर निशाना लगाया था। वह पेड़ आज भी मौजूद है।जिस पर कई साल तक आजाद की गोली का निशान दिखाई देता रहा।लेकिन पेड़ अब जर्जर हाल में है।
वर्ष 1975 में वन विभाग ने लोनिवि को लैंड ट्रांफर की और दुगड्डा से रथुवाढाब-धूमाकोट मार्ग का निर्माण शुरू हुआ। दुगड्डा से दो किमी की दूरी पर जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया था वह ठीक सड़क के किनारे था। इसके किनारे से एक छोटा नाला जंगल से बहता है। जिस कारण वहां पर लोनिवि की ओर से कॉजवे बनाया गया।जिससे खुदाई से पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। भवानी सिंह के बेटे और हमारे पत्रकार के साथी जगमोहन सिंह रावत बताते हैं, कि कॉजवे के कारण ही पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। 1972 में इस स्थान पर आजाद पार्क बनाया गया था। जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया उसे स्मृति वृक्ष कहा गया।  वर्ष 2005 में आखिर यह पेड़ टूट गया। जिसे बाद में पार्क में खुले में रखा गया। जहां रख रखाव के अभाव में दीमकों ने पेड़ को चट कर दिया। देहरादून वन अनुसंधान की टीम जब वहां गई तो पेड़ अधिक क्षतिग्रस्त होने से वह उसे देहरादून वन अनुसंधान संस्थान नहीं ला पाए।लेकिन 2018 में वन विभाग ने पार्क का सुंदरीकरण कर आजाद की मूर्ति लगाई। पेड़ के लिए भी टिन शेड बनाया लेकिन। आज भी शहीदों की यादों पर बदहाली की धूल पड़ी है। कुछ ही समय में पेड़ नष्ट हो जाएगा। लेकिन पूर्व की सरकारों की ओर से और राज्य गठन के 20 साल बाद भी इस ऐतिहासिक धरोहरों के रख रखाव के लिए कोई ठोस पहल नहीं हुई है। 
हर साल ही आजाद की शहादत दिवस पर दुगड्डा में 27 फरवरी को शहीदी मेले का आयोजन होता है। भवानी सिंह के जन्म दिन 08 अक्तूबर को कार्यक्रम कर इतिश्री हो जाती है। लेकिन जिस मकान में हमें आजादी दिलाने वाले चंद्रशेखर आजाद सहित कई क्रांतिकारी रहे हों, आज भी वह उपेक्षित पड़ा है।स्वतंत्रता दिवस और अन्य राष्ट्रीय पर्व पर हम जश्न मनाकर शहीदों को याद कर इतिश्री कर देते हैं।लेकिन शायद इन सपूतों के निस्वार्थ बलिदान का मोल हम भूलते जा रहे हैं, ऐसा न होता तो उनकी निशानियों पर ऐसी धून न जमी होती। ऐसे ही आजाद की यादों को साझा करने के लिए मैने अपने पत्रकारिता के दौरान जगमोहन सिंह रावत के घर जाकर इन सारी जानकारियों को एकत्रितकर आपके लिए सहेजा है।इसमें कुछ जानकारियों आगे भी अपडेट की जाएगी। 


क्यों आए थे "आजाद" गढ़वाल: 
काकोरी कांड के बाद अंग्रेज आजाद को ढूंढ रहे थे। अंग्रेजों से छिपकर प्रशिक्षण लेकर आगे की रणनीति बनाने के लिए आजाद अपने साथियों के साथ दुगड्डा आ गए थे। कोटद्वार से दुगड्डा की दूरी करीब 19 किमी है। जबकि दुगड्डा से नाथूपुर की दूरी पांच किमी और आजाद पार्क की दूरी दो किमी है। इसी के पास दुगड्डा ब्लॉक मुख्यालय है। अब यह पूरा क्षेत्र लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत आता है।यह रिजर्व फारेस्ट क्षेत्र है। 

नाथूपुर के दो मंजिला मकान में रुके थे आजाद
नाथूपुर में जिस घर में आजाद और उनके साथी रुके थे। वह दो मंजिला लकड़ियों से बना घर आज भी वैसे ही है। भवानी सिंह के बेटे जगमोहन सिंह रावत अब उस घर की देख रेख करते हैं और उसी में रहते हैं।लेकिन सरकार की ओर से इस पर कोई पहल नहीं की गई है।

कीर्ती स्तंभ
दुगड्डा-धूमाकोर्ट मार्ग पर आज भी चंद्र शेहर आजाद का कीर्ती स्तंभ है, जो अब जर्जर हाल में है। लेकिन आजादी की गवाही देने वाले यह ऐतिहासिक धरोहरों का आज जरूरत है तो संरक्षण की।

स्मृति वृक्ष
जिस कौल के पेड़ पर आजाद ने अचूक निशाना लगाया था। आज भी वह जर्जर हाल में एक टिन शेड में आजाद पार्क में रखा गया है।लेकिन आखिर कितने दिन तक उसे हम बचा पाते हैं। 


नाथूपुर में ली थी आजाद ने शरण
नाथूपुर दुगड्डा के पास है। कोटद्वार तक रेल मार्ग था। आगे पैदल ही जाना था। नाथूपुर चारों और से जंगल से घिरा था। जहां किसी को भी आसानी से खोजना नामुकिन था।इसके साथ ही जंगल में निशानेबाजी के लिए सबसे अच्छा था। 


भवानी सिंह रावत 
भवानी सिंह उत्तराखंड के अकेले ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिन्होंने क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ में सम्मलित होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। वे संगठन के प्रधान सेनापति चंद्रशेखर आजाद के बलिदान तक उनके साथ रहे। लेकिन आज लोग उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते और न ही आने वाली पीड़ी को कुछ बता पाते हैं। 


राष्ट्रीय दिवस पर ही शहीदों की याद क्यों ?
कुछ दिन बाद पंद्रह अगस्त आने वाला है। जिसमें तमान सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा आजादी के वीर सपूतों को याद कर फिर उनकी तस्वीरें अगले साल के लिए रख दी जाएंगी। देहरादून परेड ग्राउंड और दिल्ली में भी जश्न के सरकारी बड़े बड़े इंतजाम होंगे। सफेद पोश भी अच्छा भाषण देकर चले जाएंगे। लेकिन देश के लिए निस्वार्थ बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों को शायद हम भूल रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो यू उनकी निशानियों को दीमक चट न करते। उनके कीर्ती स्तंभ धूमिल न होते, स्मृति वृक्ष अपनी बदहाली पर आंसू न बहाता।नाथूपुर का ऐतिहासिक घर बदहाल न होता, ऐसे ही तमान ऐतिहासिक स्थलों को सिर्फ राष्ट्रीय दिवसों पर ही याद न किया जाए।अपने गौरवपूर्ण इतिहास के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए सभी तैयार रहे। यूं सरकार से भी अधिक अपेक्षा लगाता कब तक ठीक है, जब तक तुमारे सपनों को स्मृति वृक्ष की तरह दीमक चट न कर जाएं.....


अगले अंक में फिर मिलेंगे एक नए ट्रैंवलॉग के साथ:
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