Monday 12 October 2020

गढ़वाल की अनोखी विलुप्त होती परंपरा "डड्वार"

गढ़वाल की अनोखी विलुप्त होती परंपरा "डड्वार" 

विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
देहरादून। गढ़वाल में डड्वार-बौरु से लेकर वस्तु विनिमय, सांकेतिक मुद्रा और अब कैश लेस तक का सफर। आज हम गढ़वाल की विलुप्त होती संस्कृति परंपरा माप तोल और सांकेतिक मुद्रा से पहले दी जाने वाली मजदूरी के बारे में जानेंगे।
डड्वार गढ़वाल में दिया जाने वाला एक प्रकार का पारितोषिक है। जिसे पहले तीन लोगों को दिया जाता था। इसमें ब्राह्मण, लोहार और औजी को दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म होती जा रही है। इसके बदले अब लोग पैसे दे रहे हैं। सालभर में दो फसलें होती हैं। जिसमें एक गेहूं- जौ और दूसरी धान की। इसमें प्रत्येक फसल पर डड्वार दिया जाता था। इसमें फसल पकने के बाद पहला हिस्सा देवता को दिया जाता था। जिसे पूज या न्यूज कहा जाता है। दूसरा हिस्सा पंडित का दिया जाता था। जो पंडित द्वारा साल भर किए गए कार्यों के बदले कम दक्षिणा की पूर्ति करता था। तीसरा हिस्सा लोहार का था। जो फसल काटने से पहले हथियार तेज करता था। इसे धान की फसल पर पांच सूप धान दिए जाते थे। जबकि गेहूं की फसल पर तीन पाथे जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। वहीं संग्राद दिवाली पर घर पर आकर ढोल बजाने शादी विवाह और शुभ कार्यों में काम करने की भरपाई करने के बदले औजी को भी डड्वार दिया जाता था।इसे लोहार से थोड़ कम दो सूप धान और दो पाथी जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। औजी को बाजगिरी समाज के नाम से जाना जाता है।इसका मुख्य व्यवसाय शादी विवाह और शुभ कार्यों में ढोल बजाना था।इसके साथ ही ये लोग गांव में सिलाई का काम भी करते थे। ड्डवार फसल का एक हिसा होता है जो प्रत्येक फसल पर दिया जाता है।

बौरु: बौरु भी डड्वार की ही तरह श्रम के बदले दिया जाने वाला पारितोषिक है। लेकिन यह डडवार से थोड़ा भिन्न है। यह किसी ग्रामीण महिला या पुरुष द्वारा खेतों में काम करने या अन्य काम करने के बदले दिया जाने वाली दैनिक मजदूरी है। जिसे अनाज के रुप में दिया जाता है। एक दिन के काम के बदले दो सूप धान दिया जाता था। जिसके बदले में अब तीन सौ रुपये दैनिक मजदूरी दी जा रही है। 

वस्तु विनिमय से सांकेतिक मुद्रा और केस लैस 
गढ़वाल में पहले जब सांकेतिक मुद्रा नहीं थी, तब श्रम के बदले डड्वार बौरु आदि दिया जाता था। वस्तु विनिमय भी उस समय किया जाता था। जौसे चौलाई,सोयाबीन के बदले नमक तेल लेना। इसके लिए गढ़वाल से ढाकर आते थे।जो वर्तमान कोटद्वार है। उसके बाद सांकेतिक मुद्रा आई। तब बस्तु के बदले पैसे दिए जाने लगे। लेकिन गांव में आज भी डड्वार और बौरु जौसी परंपरायें कुछ हद तक जिंदा है। उसके बाद आधुनिक भारत में कैस लेस में पेटीएम, गुगल एप, यूपीआई , ऑनलाइन मनी ट्रासफर जैसी व्यवस्थाएं आ गई है। जिसमें ऑनलाइन ही कहीं से भी सामान मंगवा सकते हैं।


प्राचीन समय में माप तोल
गढ़वाल में प्राचीन समय में माप तोल के पाथा, सेर आदि होते थे।दो सेर बराबर एक किलो। चार सेर बराबर एक पाथा। इसके बाद दोण, खार आदि आनाज मापने की विधि थी। खेत की माप मुट्ठी के हिसाब से होती थी। सोने चांदी और कीमती जेवरों की तोल रत्ती आदि में होती थी। समय की गणना ज्योतिष के घडी पल आदि से होती थी। दिन की पहर से और महीने की संक्रांति से। 


पवांण
बीज रोपाई के पहले दिन को पवांण कहते हैं। पवांण का अर्थ होता है पहला दिन।

Sunday 16 August 2020

##वैश्विक महामारी कोरोना और इसके साइड इफेक्ट##

##वैश्विक महामारी कोरोना और इसके साइड इफेक्ट##

कोराना का पहला मामला दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत में सामने आया था। उसके बाद वायरस दुनिया के 168 देशों में अपने पैर पसार चुका है। कोरोना के बाद कई तरह की अफवाओं का बाजार भी गर्म रहा। भारत में पहला कोरोना का मामला जनवरी में केरल में आया। जिसमें चीन से लौटे एक छात्र में कोरोना की पुष्टि हुई। इसके बाद अन्य प्रांतों में भी इसके मरीजों की संख्या बढ़ने लगी। पहले दौरा में मुंबई में सबसे अधिक मामले सामने आए। उत्तराखंड में मार्च दूसरे सप्ताह में पहला कोरोना का मामला सामने आया।विदेश से लौटे एक ट्रेनी आईएफएस में इसकी पुष्टि हुई। जिसके बाद कोटद्वार में स्पेन से लौटे युवक रुड़की क्षेत्र में मामले आए। मार्च तीसरे सप्ताह में दिल्ली निजामुद्दीन मरकज मामले का पता लगा जिसके बाद कोरोना के मामले बढ़ने लगे। उत्तराखंड में भी 10 अप्रैल तक 34 मामले कोरोना के दर्ज किए गए। जिसमें से अधिकांश जमात से जुड़े होने की बात सामने आई। भारत में 10 अप्रैल तक कुल कोरोना के मामले 5865 हो चुके हैं, जिसमें से 169 लोगों की मौत हो चुकी है।जबकि 447 लोग ठीक हो चुके हैं। विश्व में 10 अप्रैल तक कुल 1569849 मामले सामने आ चुके हैं।जिसमें से 92191 लोगों की मौत हो चुकी है। अमेरिका में 16074 और चीन में 3335 लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन भारत के लिए अच्छी खबर यह है कि भारत में कोरोना की रफ्तार दर अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिसद ने दावा किया है कि भारत में कोरोना संक्रमण की दर तीन से पांच फीसदी है। भारत सरकार ने भी 24 मार्च को पूरे भारत में लॉकडान कर दिया। इसी बीच अमेरिका और चीन के बीच जुवानी जंग भी तेज हुई। हाल में ही भारत से क्लोरोक्वीन दवा मांगने को लेकर ट्रंप और मोदी की भी खूब चर्चा रही। बाद में अमेरिका ने भारत का धन्यवाद किया। वहीं दुनियां के सबसे शक्तिशाली देश को रूस की ओर से वैंटिलेटर देने का मामला भी खूब चर्चा में रहा। भारत में स्वास्थ्य व्यवस्थाएं और डॉक्टरों को पीपीटी किट पर भी चर्चा हुई। कुछ लोगों ने दावा किया कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत दुनियां में 192 वें स्थान पर है। जिसका पता कोरोना के दौरान चला। जबकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में नंबर दो पर रहने वाले ईटली की भी बुरी स्थिति है। वहीं इस वायरस को लेकर अमरीकन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑर हेल्थ ने अपने रिसर्च में पाया है कि ये थूक के कणों में वायरस 3-4 घंटों तक ज़िंदा रह सकते हैं और हवा में तैर सकते हैं. लेकिन अगर ये कण दरवाज़े का हैंडल, लिफ्ट बटन जैसे धातु जैसी सतहों पर ये 48 घंटों तक एक्टिव रह सकते हैं। इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका सोशल डिस्टेंसिंग है। लेकिन कुछ लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग पर भी सवाल खड़े किए। उन्होंने बताया कि सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। सामाजिक दूरी या शाररिक दूरी। वायर सबसे अधिक एक दूसरे के संपर्क में आने से फैला। अफवाओं का दौर भी इस कदर हावी रहा कि शराब पीने से वारसर खत्म होने की अफवाह ने खाड़ी देश में तीन सौ लोगों की जान ले ली। जबकि कोरोना के भय से कई लोगों ने आत्महत्या कर ली।


कोरोना संकट में भारत और विश्व 
कोरोना से पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। कोरोना की वजह से भारत के करीब 40 करोड़ लोगों के गरीबी रेखा से नीचे जाने का खतरा बढ़ गया है। भारत की अर्थव्यवस्था में सेवा के क्षेत्र का सबसे अधिक योगदान है। चिकित्सा को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्र बंद हैं। यूएन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कोविड19 की वजह से इस साल दूसरी तिमाही में वैश्विक स्तर पर 19.5 करोड़ लोगों की फुलटाइम जॉब जा सकती है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन आईएलओ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कोरोना महामारी को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे खराब वैश्विक संकट बताया है। भारत में असंगठित क्षेत्र देश की करीब 94 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है और अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 45 फ़ीसदी है. लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी है। क्योंकि रातोंरात हज़ारों लोगों का रोज़गार छिन गया. इसीलिए सरकार की ओर से जो पहले राहत पैकेज की घोषणा की गई वो ग़रीबों पर आर्थिक बोझ कम करने के उद्देश्य से हुई। लॉकडाउन में वहीं आईटी कंपनियों को बड़ा अवसर भी मिला है। ऑनलाइन शिक्षा का कारोबार और अन्य गतिविधियां बढ़ी हैं। कई स्कूलों ने मोबाइल एप , यूट्यूब, और वर्चुअल क्लास से पढ़ाई करवाई जा रही है। वहीं न्यूज पोर्टल और ई पेपर के पाठकों की संख्या भी बड़ी है। कई नए न्यूज पोर्टलों का जन्म हुआ। जबिक सोशल मीडिया का भी सबसे अधिक प्रयोग हुआ। मोबाइल फोन भी इस पूरे घटनाक्रम में किसी क्रांति से कम नहीं रहा।

कोरोना वायरस है क्या 
कोरोना का सामान्य अर्थ मुकुट होता है। कोरोना वायर के चारों और की परत चंद्रमा की परत की तरह दिखती है। चंद्रमा की बाहरी कक्षा के आकार की तरह होने के कारण इसे कोरोना नाम दिया गया है। कोरोनावायरस (Coronavirus)  कई प्रकार के विषाणुओं (वायरस) का एक समूह है जो स्तनधारियों और पक्षियों में रोग उत्पन्न करता है। यह आरएनए वायरस होते हैं। इनके कारण मानवों में श्वास तंत्र संक्रमण पैदा हो सकता है जिसकी गहनता हल्की सर्दी-जुकाम से लेकर अति गम्भीर मृत्यु तक हो सकती है। इनकी रोकथाम के लिए कोई टीका (वैक्सीन) या विषाणुरोधी (antiviral) अभी उपलब्ध नहीं है और उपचार के लिए प्राणी की अपने प्रतिरक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है। अभी तक रोगलक्षणों के आधार पर संक्रमण से लड़ते हुए शरीर की शक्ति बनी रहे इसकों ही ध्यान में रखा जा रहा है। इम्यून सिस्टम को ठीक रखने के लिए कई प्रकार के आयुर्वेदिक संसाधनों का प्रयोग अपने खाने में किया जा रहा है। साथ ही मलेरिया में कारगर दवा क्लोरोक्वीन का भी डॉक्टरी सलाह पर प्रयोग किया जा रहा है। वैज्ञानिकों ने इसकी संरचना पहचाने में कामयाबी तो पा ली है। लेकिन इसका मूल कहां और और इसकी दवा अभी तक नहीं बन पाई है। दुनियां के वैज्ञानिक इस पर कार्यकर रहे हैं।

कब क्या हुआ
01 जनवरी वुहान में मांस बाजार बंद
09 जनवरी को नोवेल कोरोना वायरस की पहचान हुई
13 जनवरी को चीन से पहला कोरोना केस बाहर
31 जनवरी भारत, इटली, ब्रिटेन, स्पेन में पहला मामला 
22-23 मार्च भारत में जनता कफर्यू
24 मार्च से भारत में डॉकडाउन 
08 अप्रैल ब्रिटिश पीएम की हालत गंभीर 
08 अप्रैल मरने वालों की संख्या 75000 पार
10 अप्रैल को मैने इस पर एक रिपोर्ट तैयार की

Friday 31 July 2020

कमल जोशी के कैमरे में कैद हिमालयी संस्कृति

कमल जोशी के कैमरे में कैद हिमालयी संस्कृति
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

हिमालय केवल एक पहाड़ नहीं बल्कि संस्कृति और सभ्यता का उद्गम स्थल भी है। हिमालय केवल भारत, एशिया को ही नहीं बल्की पूरे विश्व की जलवायु को प्रभावित करता है। भारत के लिए हिमालय का महत्व और भी बढ़ जाता है। हिमालय न केवल भारत के उत्तर में एक सजग परहरी बनकर खड़ा है, बल्कि हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलायें साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोक कर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में आधिक ठंडा होने से बचाती हैं। पुराणों में भी हिमालय का वर्णन किया गया है।
आज हम प्रसिद्ध फोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी के बारे में जानेगे जिन्होंने हिमालयी संस्कृति और सभ्यता को न केवल अपने कैमरे में कैद किया, बल्कि उसे लोगों तक भी पहुंचाया। कमल जोशी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें हमेशा हम सबको एक प्रेरिणा देती रहेंगी। वो कमल जोशी ही थे जिन्होंने फोटोग्राफी को अपना फैशन बना दिया था और अपना सर्वस्व उस पर लगा दिया था। किसी भी घटनाक्रम को लिखने बोलने से अधिक प्रभावशाली तरीका है कि फोटोग्राफ के द्वारा उसे लोगों तक पहुंचाया जाए। वर्ष 2014 में जब मैं कोटद्वार में पत्रकारिता कर रहा था उस दौरान वरिष्ठ नागरिक मंच कोटद्वार की ओर से बालासौड़ में कमल जोशी को अपने कार्यक्रम में बुलाया गया था। जिसमें कमल जोशी ने अपनी पूरी जिंदगीभर की फोटोग्राफी को मॉनिटर से लोगों को दिखाया और उन फोटोग्राफ के बारे में जानकारी भी दी। मैं केवल समाचार एकत्रित करने गया था, लेकिन कमल जोशी की फोटोग्राफी और उनकी जानकारी मुझे वहां से जाने से रोक रही थी। कमल जोशी से मेरे पारिवारिक संबंध तो थे ही लेकिन जब भी टाइम मिलता मैं उन्हें घर पर बुला लेता। वरिष्ठ नागरिक मंच के कार्यक्रम में कमल जोशी द्वारा हिमालय के बारे में बताए गए कुछ अंश आज भी मुझे याद हैं, और वो तस्वीरें भी दिलों दिमाग में छाई हुई हैं। कमल जोशी के कार्यक्रम के कुछ अंश आपके सामने साझा कर रहा हूं। 
कार्यक्रम में कमल जोशी अपनी फोटो को मॉनिटर पर सलाइडों को चलाते हुए बता रहे थे।जिसमें उन्होंने बताया कि हिमालय केवल पहाड़ या दूर से दिखने वाला केवल बर्फ का एक विशाल घर नहीं बल्कि सभ्यता संस्कृति का उदगम स्थल भी है। हिमालय से विश्व की सबसे अधिक नदियां निकलती हैं, साथ ही पानी का सबसे बड़ा भंडार भी हिमलय ही है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण आज हिमालय में बड़े बदलाव आ रहे हैं। जिसमें उन्होंने गोमुख गलेश्यर, जम्मू कश्मीर, लदाख और नेपाल के हिमलाय की फोटो दिखाई। जिसमें ग्लेश्यर लगातार पीछे खिसक रहे हैं। इस जलवायु परिवर्तन का वहां के जीव जन्तुओं पर भी असर पड़ रहा है, वहां की वनस्पति पर भी असर हो रहा है। उन्होंने हिमायली नदियों के बारे में भी जानकारी दी। साथ ही हिमालय से नदियों के उद्गम के बारे में भी बताया। इसके साथ ही बताया कि जैसे ही हिमालय से नदियां आगे बढ़ी वैसे ही नदी किनारे एक सभ्यता और एक संस्कृति ने भी जन्म लिया।  लेकिन जैसे ही नदियां आगे बढ़ी संस्कृति और सभ्यता में भी अंतर आया। जैसे चमोली के अलकनंदा के किनारे बसे गांव या बद्रीनाथ क्षेत्र में बसे भोटिया जनजाति के लोग और उनकी संस्कृति और सभ्यता। वहां के लोग मुख्य रूप से भेड़ पालन करते हैं, खेती अधिक उच्च हिमालयी क्षेत्रों में नहीं होती है। इस लिए वे लोग छह माह बद्रीनाथ और छह माह के लिए निचले इलाकों में आ जाते हैं। उनकी संस्कृति देवता, रहन , सहन आदि सभी विशेष है। वे लोग भेड़ की ऊन से ही कपड़े बनाते हैं। भेड़ की ऊन से बनाया गया दोखा एक प्रकार का गाउन होता है, जिसे बाहर से पहना जाता है। इसे बारिश ठंड आदि से बचा जा सकता है। लेकिन जैसे हम नदी की तलहटी में उतरते हैं, तो वहां का रहन सहन भिन्न हो जाता है। वहां के लोग गांव में स्थाई रूप से निवास करते हैं। इससे और नीचे बढ़ने पर रहन-सहन आदि में फर्क आ जाता है। इस लिए हिमालयी राज्यों की संस्कृति और सभ्यता में आए बदलाव वहां के पर्यावरणीय कारणों से भी प्रभावित हुए हैं। लदाख में जानवरों से बोझा ले जाने के काम में लगाया जाता है। उन्होंने शिवालिक श्रेणी की हिमालयी चोटियों के बारे में बताया। साथ ही हिमालयी गांवों का दौरा कर वहां के लोगों की संस्कृति को अपने कैमरे में कैद किया। उन्होंने पहाड़ी ढलानों पर बुग्यालों, चोटियों मध्य हिमालय और नदी घाटी संस्कृति के बारे में भी जानकारी दी। साथ ही गंगा यमुना जैसी नदियों की महत्ता भी बताई। हिमालय को भारत, नेपाल और चीन में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। लेकिन इस हिमालयी क्षेत्र में एक विशाल सभ्यता और संस्कृति ने जन्म लिया है। भारत में भी उत्तर से लेकर पूर्व तक कई हिमालयी राज्य हैं। इसलिए इस हिमलयी संस्कृति और सभ्यता के संरक्षण के लिए और हिमालय के संरक्षण और संवर्द्धन पर विश्व को सोचना होगा। उनके फोटोग्राफ में हिमालयी गाय चराने वाले बच्चे, सोने के आभूषणों पर वहां की संस्कृति की झलक दिखाने वाली महिलाएं और मजदूर, किसान की फोटो में वहां की संस्कृति झलती है। उन्होंने कई बार अपने साथियों के साथ गांवों की यात्राएं की। पिछले नंदा देवी राजजात पर उनका ब्लॉग हिमालय के उस पार भी रहती है हमारी अनुष्का बेहतरीन हिमालयी युवती की कहानी थी। लेकिन अब वो ब्लॉग भी उपलब्ध नहीं हो पाया। नंदा देवी राजजात हिमायल का एक महाकुंभ है, इसकी संस्कृति और सभ्यता को कमल जोशी ने अपने कैमरे में कैद किया था। इससे पहले उन्होंने मेरे साथ कोटद्वार बेस अस्पताल में अपना स्वस्थ्य परीक्षण कर कुछ दवाएं लेकर राजजात के लिए रवाना हुए थे। अब कमल नहीं उनकी फोटोग्राफी हमेशा हिमालयी राज्यों की संस्कृति और सभ्यता के बारे में हमे जानकारी देती रहेगी और आगे बढ़नी की प्रेरणा देती रहेगी।

जमीदार उमराव सिंह और सुल्ताना डाकू

जमीदार उमराव सिंह और सुल्ताना डाकू
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में नजीबाबाद-कोटद्वार क्षेत्र में सुल्लताना डाकू का खौफ था। कोटद्वार से लेकर बिजनौर यूपी और कुमाऊं तक उसका राज चलता था। बताया जाता है कि सुल्लताना डाकू लूटने से पहले अपने आने की सूचना दे देता था, उसके बाद लूट करता था। लगभग चार सौ साल पूर्व नजीबाबाद में नवाब नाजीबुद्दोला ने किल्ला बनवाया था। बाद में इस पर सुलताना डाकू ने कब्जा कर लिया था। 
उस समय कोटद्वार-भाबर क्षेत्र में जमीदार उमराव सिंह थे। कोटद्वार निवासी आलोक रावत ने बताया उमराव सिंह उनके रिश्तेदार थे, उनकी मां इस बारे में जानकारी देती हैं। उन्होंने बताया कि सुल्लताना डाकू ने करीब 1915 से 20 के बीच कोटद्वार-भाबर के प्रसिद्ध जमीदार उमराव सिंह के घर चिट्ठी भेजी कि हम फलाने दिन उनके घर लूट करने आ रहे हैं। जिससे उमराव सिंह को काफी गुस्सा आया और उन्होंने इसकी सूचना पुलिस को देने की योजना बनाई। भाबर से करीब 20 किमी दूर कोटद्वार में पुलिस थाना था। 
उमराव सिंह ने अपने घर में काम करने वाले एक व्यक्ति को चिट्ठी दी कि इसे कोटद्वार थाने में दे आ। भाबर से कोटद्वार तक उन दिनों सड़क मार्ग नहीं था। लेकिन भाबर से होते हुए कोटद्वार सनेह से कुमाऊं तक कंडी रोड थी। कुछ लोग बताते हैं कि कंडी रोड हिमाचल से हरिद्वार और कोटद्वार से कुमाऊं होते हुए नेपाल तक जाती थी। जो वन विभाग के अंतर्गज आती थी। रोड पर बैल गाड़ी आदि चलती थी। जिसमें बांस काटकर ले जाया जाता था। उमराव सिंह के घर में काम करने वाला भी चिट्ठी लेकर कोटद्वार पुलिस के पास जा रहा था। उमराव सिंह ने पैदल जाने में अधिक समय लगने के कारण उसे अपना घोड़ा दिया था। ताकि वह जल्दी से पुलिस को सूचना दे दे। जैसे वह घर से कोटद्वार घोड़े पर जा रहा था दुर्गापुरी के पास नहर किनारे सुल्लताना डाकू और उसके साथी नहा रहे थे। डाकू और उसके साथी एक विशेष वेशभूषा में होते थे, जो पुलिस की वर्दी की तरह लगती थी। सुल्लताना ने घोड़े पर किसी को जाते देखा तो उसे रोका। उसने कहां कि घोड़ा तो किसी जागीरदार का लग रहा है, लेकिन इस पर नौकर कहां जा रहा है। घोड़े से जा रहे व्यक्ति ने भी सुल्लताना और उसके साथियों को पुलिस जानकर चिट्ठी दे दी और वहां से घर लौट गया। चिट्ठी पढ़ कर सुल्लताना भड़क गया। नौकर के घर पहुंचने पर उमराव सिंह ने पूछा कि चिट्ठी दे दी पुलिस को और तू जल्दी वापस आ गया। उसने बताया कि पुलिस वाले दुर्गापुरी के पास ही मिल गए थे। सुल्लताना भी वहां से सीधे उमराव सिंह के घर पहुंच गया और उन्हें गोली मार दी। अगर उमराव सिंह पुलिस को सूचना न देते और सुल्लताना का कहना मान देते तो शायद उनकी जान बच जाती। उमराव सिंह का कोटद्वार-भावर के विकास में बड़ा योगदान है। उन्होंने कई लोगों को भाबर क्षेत्र में बसाया। आज भी उनके नाम से भाबर क्षेत्र में उमरावपुर जगह है। कोटद्वार क्षेत्र में सुल्लताना की काफी दहसत थी। भाबर के खूनीबड़ गांव में एक बड़ का पेड़ था, लोकउक्ति है कि सुल्लताना लोगों को मारकर उस बड़ के पेड़ पर टांक देता था, जिससे उनकी डर लोगों में बनी रहे। इसी लिए उस गांव का नाम आज भी खूनीबड़ है। 
1923 में तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और आखिरकार 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद ज़िले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया। सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे। इस पूरे मिशन में कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी। नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुक़दमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया। उसे फांसी की सजा सुनाई गई। हल्द्वानी की जेल में 8 जून 1924 को जब सुल्ताना को फांसी पर लटकाया गया तो उसे अपने जीवन के तीस साल पूरे करने बाकी थे।
जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माय इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इंडियाज़ रॉबिन हुड’ में एक जगह लिखा है, ‘एक डाकू के तौर पर अपने पूरे करियर में सुल्ताना ने किसी ग़रीब आदमी से एक कौड़ी भी नहीं लूटी। सभी गरीबों के लिए उसके दिल में एक विशेष जगह थी। जब-जब उससे चंदा मांगा गया, उसने कभी इनकार नहीं किया, और छोटे दुकानदारों से उसने जब भी कुछ खरीदा उसने उस सामान का हमेशा दोगुना दाम चुकाया।’नजीबाबाद में जिस किल्ले पर सुल्लताना ने कब्जा किया था आज भी उसके खंडर है। उस किल्ले के बीच में एक तालाब था। बताया जाता है कि सुल्लताना ने अपना खजाना यहीं छुपाया था। बाद में वहां खुदाई भी हुई पर कुछ नहीं मिला। कुल लोगों का कहना है कि किल्ले के अंदर से सुल्लताना ने नजीबाबाद पुलिस थाने तक सुल्लताना ने सुरंग बनाई थी। जहां बंद होने पर भी वह आसानी से निकल जाता था और जरूरत पड़ने पर वहां से बंदूकें भी लूट लाता था। पुलिस भी उसे पकड़ नहीं पा रही थी। 1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया। उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म ‘सुल्ताना डाकू बनाई, जिसमें मुख्य किरदार दारा सिंह ने निभाया था।

Saturday 18 July 2020

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल" - Himantar

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल" - Himantar: विजय भट्ट जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की. इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की.  कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे. हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की. शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो.  जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की. भारत […]

Friday 17 July 2020

"आजाद" का प्रशिक्षण स्थल ही उपेक्षित!

"आजाद" का प्रशिक्षण स्थल ही उपेक्षित!

ट्रैवलॉक: 
विजय भट्ट वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की।
इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की। 
कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे।
हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की।
शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो। 
जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की।

गुलाम भारत में ये दौर था वर्ष 1930 के अगस्त माह के दूसरे सप्ताह का। जब चंद्रशेखर "आजाद", हजारीलाल, रामचंद्र, छैलबिहारी लाल, विश्वम्भरदयाल और दुगड्डा निवासी उनके साथी क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत दिल्ली से गढ़वाल की ओर चल पड़े। यह सभी भवनी सिंह रावत के दुगड्डा के पास नाथूपुर गांव जा रहे थे। कोटद्वार में रेल से उतर कर सभी दुगड्डा के लिए प्रस्थान करते हैं। दिन का तीसरा प्रहर बीत रहा था। शाम के समय सीला नदी पार कर जंगल के रास्ते सभी आगे बढ़ रहे थे। सुहाने मौसम में पकड़ंडी पर चलते हुए आजाद अपने प्रिय उक्त गीत को गुनगुना रहे थे। 
भवानी सिंह के पिता नाथूसिंह सेना के अवकाश प्राप्त ऑनरेरी कैप्टेन थे।प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स में सराहनीय कार्य के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें दुगड्डा के पास 20 एकड़ भूमि जागीर के रूप में दी थी।1927 में वह अपने पुश्तैनी गांव पंचूर चौंदकोट पौड़ी गढ़वाल को छोड़कर जागीर में बस गए थे। उन्ही के नाम से यहां का नाम नाथूपुर पड़ा। भवानी सिंह उन दिनों दिल्ली हिन्दू कालेज में पड़ते थे। जहां उनकी मुलाकात आजाद और अन्य क्रांतिकारियों से हुई थी। भवानी सिंह ने आजाद का परिचय अपने घर में एक वन विभाग के कर्मचारी के रूप में दिया था।बताया कि वह यहां घूमने और जंगल में शिकार करने आए हैं। इस दौरान आजाद ने अंग्रेजों से छिपकर अपने साथियों के साथ दुगड्डा के जंगल में निशाने बाजी का प्रशिक्षण लिया।एक बार जंगल में गोली चलने की आवाज सुनकर दो वन विभाग के अधिकारी वहां पहुंच गए। उन्होंने पूछा कि यह सब क्या है। तो भवानी सिंह ने कहा कि मैं नाथू सिंह जी का लड़का हूं और ये सब उनके दोस्त हैं। यहां वह निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे हैं। जिसके बाद अफसर वापस लौट गए। दुगड्डा के पास एक दिन साथियों के कहने पर आजाद ने एक कौल के पेड़ पर निशाना लगाया था। वह पेड़ आज भी मौजूद है।जिस पर कई साल तक आजाद की गोली का निशान दिखाई देता रहा।लेकिन पेड़ अब जर्जर हाल में है।
वर्ष 1975 में वन विभाग ने लोनिवि को लैंड ट्रांफर की और दुगड्डा से रथुवाढाब-धूमाकोट मार्ग का निर्माण शुरू हुआ। दुगड्डा से दो किमी की दूरी पर जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया था वह ठीक सड़क के किनारे था। इसके किनारे से एक छोटा नाला जंगल से बहता है। जिस कारण वहां पर लोनिवि की ओर से कॉजवे बनाया गया।जिससे खुदाई से पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। भवानी सिंह के बेटे और हमारे पत्रकार के साथी जगमोहन सिंह रावत बताते हैं, कि कॉजवे के कारण ही पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। 1972 में इस स्थान पर आजाद पार्क बनाया गया था। जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया उसे स्मृति वृक्ष कहा गया।  वर्ष 2005 में आखिर यह पेड़ टूट गया। जिसे बाद में पार्क में खुले में रखा गया। जहां रख रखाव के अभाव में दीमकों ने पेड़ को चट कर दिया। देहरादून वन अनुसंधान की टीम जब वहां गई तो पेड़ अधिक क्षतिग्रस्त होने से वह उसे देहरादून वन अनुसंधान संस्थान नहीं ला पाए।लेकिन 2018 में वन विभाग ने पार्क का सुंदरीकरण कर आजाद की मूर्ति लगाई। पेड़ के लिए भी टिन शेड बनाया लेकिन। आज भी शहीदों की यादों पर बदहाली की धूल पड़ी है। कुछ ही समय में पेड़ नष्ट हो जाएगा। लेकिन पूर्व की सरकारों की ओर से और राज्य गठन के 20 साल बाद भी इस ऐतिहासिक धरोहरों के रख रखाव के लिए कोई ठोस पहल नहीं हुई है। 
हर साल ही आजाद की शहादत दिवस पर दुगड्डा में 27 फरवरी को शहीदी मेले का आयोजन होता है। भवानी सिंह के जन्म दिन 08 अक्तूबर को कार्यक्रम कर इतिश्री हो जाती है। लेकिन जिस मकान में हमें आजादी दिलाने वाले चंद्रशेखर आजाद सहित कई क्रांतिकारी रहे हों, आज भी वह उपेक्षित पड़ा है।स्वतंत्रता दिवस और अन्य राष्ट्रीय पर्व पर हम जश्न मनाकर शहीदों को याद कर इतिश्री कर देते हैं।लेकिन शायद इन सपूतों के निस्वार्थ बलिदान का मोल हम भूलते जा रहे हैं, ऐसा न होता तो उनकी निशानियों पर ऐसी धून न जमी होती। ऐसे ही आजाद की यादों को साझा करने के लिए मैने अपने पत्रकारिता के दौरान जगमोहन सिंह रावत के घर जाकर इन सारी जानकारियों को एकत्रितकर आपके लिए सहेजा है।इसमें कुछ जानकारियों आगे भी अपडेट की जाएगी। 


क्यों आए थे "आजाद" गढ़वाल: 
काकोरी कांड के बाद अंग्रेज आजाद को ढूंढ रहे थे। अंग्रेजों से छिपकर प्रशिक्षण लेकर आगे की रणनीति बनाने के लिए आजाद अपने साथियों के साथ दुगड्डा आ गए थे। कोटद्वार से दुगड्डा की दूरी करीब 19 किमी है। जबकि दुगड्डा से नाथूपुर की दूरी पांच किमी और आजाद पार्क की दूरी दो किमी है। इसी के पास दुगड्डा ब्लॉक मुख्यालय है। अब यह पूरा क्षेत्र लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत आता है।यह रिजर्व फारेस्ट क्षेत्र है। 

नाथूपुर के दो मंजिला मकान में रुके थे आजाद
नाथूपुर में जिस घर में आजाद और उनके साथी रुके थे। वह दो मंजिला लकड़ियों से बना घर आज भी वैसे ही है। भवानी सिंह के बेटे जगमोहन सिंह रावत अब उस घर की देख रेख करते हैं और उसी में रहते हैं।लेकिन सरकार की ओर से इस पर कोई पहल नहीं की गई है।

कीर्ती स्तंभ
दुगड्डा-धूमाकोर्ट मार्ग पर आज भी चंद्र शेहर आजाद का कीर्ती स्तंभ है, जो अब जर्जर हाल में है। लेकिन आजादी की गवाही देने वाले यह ऐतिहासिक धरोहरों का आज जरूरत है तो संरक्षण की।

स्मृति वृक्ष
जिस कौल के पेड़ पर आजाद ने अचूक निशाना लगाया था। आज भी वह जर्जर हाल में एक टिन शेड में आजाद पार्क में रखा गया है।लेकिन आखिर कितने दिन तक उसे हम बचा पाते हैं। 


नाथूपुर में ली थी आजाद ने शरण
नाथूपुर दुगड्डा के पास है। कोटद्वार तक रेल मार्ग था। आगे पैदल ही जाना था। नाथूपुर चारों और से जंगल से घिरा था। जहां किसी को भी आसानी से खोजना नामुकिन था।इसके साथ ही जंगल में निशानेबाजी के लिए सबसे अच्छा था। 


भवानी सिंह रावत 
भवानी सिंह उत्तराखंड के अकेले ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिन्होंने क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ में सम्मलित होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। वे संगठन के प्रधान सेनापति चंद्रशेखर आजाद के बलिदान तक उनके साथ रहे। लेकिन आज लोग उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते और न ही आने वाली पीड़ी को कुछ बता पाते हैं। 


राष्ट्रीय दिवस पर ही शहीदों की याद क्यों ?
कुछ दिन बाद पंद्रह अगस्त आने वाला है। जिसमें तमान सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा आजादी के वीर सपूतों को याद कर फिर उनकी तस्वीरें अगले साल के लिए रख दी जाएंगी। देहरादून परेड ग्राउंड और दिल्ली में भी जश्न के सरकारी बड़े बड़े इंतजाम होंगे। सफेद पोश भी अच्छा भाषण देकर चले जाएंगे। लेकिन देश के लिए निस्वार्थ बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों को शायद हम भूल रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो यू उनकी निशानियों को दीमक चट न करते। उनके कीर्ती स्तंभ धूमिल न होते, स्मृति वृक्ष अपनी बदहाली पर आंसू न बहाता।नाथूपुर का ऐतिहासिक घर बदहाल न होता, ऐसे ही तमान ऐतिहासिक स्थलों को सिर्फ राष्ट्रीय दिवसों पर ही याद न किया जाए।अपने गौरवपूर्ण इतिहास के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए सभी तैयार रहे। यूं सरकार से भी अधिक अपेक्षा लगाता कब तक ठीक है, जब तक तुमारे सपनों को स्मृति वृक्ष की तरह दीमक चट न कर जाएं.....


अगले अंक में फिर मिलेंगे एक नए ट्रैंवलॉग के साथ:
आपके सुझाव और सुधार सादर आमंत्रित हैं?

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल"

"शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल"

ट्रैवलॉक: 
विजय भट्ट वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की।
इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की। 
कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे।
हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की।
शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो। 
जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की।

भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी। ये दौर था वर्ष 1930 के अगस्त माह के दूसरे सप्ताह का। जब चंद्रशेखर "आजाद", हजारीलाल, रामचंद्र, छैलबिहारी लाल, विश्वम्भरदयाल और दुगड्डा निवासी उनके साथी क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत दिल्ली से गढ़वाल की ओर चल पड़े। यह सभी भवनी सिंह रावत के दुगड्डा के पास नाथूपुर गांव जा रहे थे। कोटद्वार में रेल से उतर कर सभी दुगड्डा के लिए प्रस्थान करते हैं। दिन का तीसरा प्रहर बीत रहा था। शाम के समय सीला नदी पार कर जंगल के रास्ते सभी आगे बढ़ रहे थे। सुहाने मौसम में पकड़ंडी पर चलते हुए आजाद अपने प्रिय उक्त गीत को गुनगुना रहे थे। 
भवानी सिंह के पिता नाथूसिंह सेना के अवकाश प्राप्त ऑनरेरी कैप्टेन थे।प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स में सराहनीय कार्य के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें दुगड्डा के पास 20 एकड़ भूमि जागीर के रूप में दी थी।1927 में वह अपने पुश्तैनी गांव पंचूर चौंदकोट पौड़ी गढ़वाल को छोड़कर जागीर में बस गए थे। उन्ही के नाम से यहां का नाम नाथूपुर पड़ा। भवानी सिंह उन दिनों दिल्ली हिन्दू कालेज में पड़ते थे। जहां उनकी मुलाकात आजाद और अन्य क्रांतिकारियों से हुई थी। भवानी सिंह ने आजाद का परिचय अपने घर में एक वन विभाग के कर्मचारी के रूप में दिया था।बताया कि वह यहां घूमने और जंगल में शिकार करने आए हैं। इस दौरान आजाद ने अंग्रेजों से छिपकर अपने साथियों के साथ दुगड्डा के जंगल में निशाने बाजी का प्रशिक्षण लिया।एक बार जंगल में गोली चलने की आवाज सुनकर दो वन विभाग के अधिकारी वहां पहुंच गए। उन्होंने पूछा कि यह सब क्या है। तो भवानी सिंह ने कहा कि मैं नाथू सिंह जी का लड़का हूं और ये सब उनके दोस्त हैं। यहां वह निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे हैं। जिसके बाद अफसर वापस लौट गए। दुगड्डा के पास एक दिन साथियों के कहने पर आजाद ने एक कौल के पेड़ पर निशाना लगाया था। वह पेड़ आज भी मौजूद है।जिस पर कई साल तक आजाद की गोली का निशान दिखाई देता रहा।लेकिन पेड़ अब जर्जर हाल में है।
वर्ष 1975 में वन विभाग ने लोनिवि को लैंड ट्रांफर की और दुगड्डा से रथुवाढाब-धूमाकोट मार्ग का निर्माण शुरू हुआ। दुगड्डा से दो किमी की दूरी पर जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया था वह ठीक सड़क के किनारे था। इसके किनारे से एक छोटा नाला जंगल से बहता है। जिस कारण वहां पर लोनिवि की ओर से कॉजवे बनाया गया।जिससे खुदाई से पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। भवानी सिंह के बेटे और हमारे पत्रकार के साथी जगमोहन सिंह रावत बताते हैं, कि कॉजवे के कारण ही पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ। 1972 में इस स्थान पर आजाद पार्क बनाया गया था। जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया उसे स्मृति वृक्ष कहा गया।  वर्ष 2005 में आखिर यह पेड़ टूट गया। जिसे बाद में पार्क में खुले में रखा गया। जहां रख रखाव के अभाव में दीमकों ने पेड़ को चट कर दिया। देहरादून वन अनुसंधान की टीम जब वहां गई तो पेड़ अधिक क्षतिग्रस्त होने से वह उसे देहरादून वन अनुसंधान संस्थान नहीं ला पाए।लेकिन 2018 में वन विभाग ने पार्क का सुंदरीकरण कर आजाद की मूर्ति लगाई। पेड़ के लिए भी टिन शेड बनाया लेकिन। आज भी शहीदों की यादों पर बदहाली की धूल पड़ी है। कुछ ही समय में पेड़ नष्ट हो जाएगा। लेकिन पूर्व की सरकारों की ओर से और राज्य गठन के 20 साल बाद भी इस ऐतिहासिक धरोहरों के रख रखाव के लिए कोई ठोस पहल नहीं हुई है। 
हर साल ही आजाद की शहादत दिवस पर दुगड्डा में 27 फरवरी को शहीदी मेले का आयोजन होता है। भवानी सिंह के जन्म दिन 08 अक्तूबर को कार्यक्रम कर इतिश्री हो जाती है। लेकिन जिस मकान में हमें आजादी दिलाने वाले चंद्रशेखर आजाद सहित कई क्रांतिकारी रहे हों, आज भी वह उपेक्षित पड़ा है।स्वतंत्रता दिवस और अन्य राष्ट्रीय पर्व पर हम जश्न मनाकर शहीदों को याद कर इतिश्री कर देते हैं।लेकिन शायद इन सपूतों के निस्वार्थ बलिदान का मोल हम भूलते जा रहे हैं, ऐसा न होता तो उनकी निशानियों पर ऐसी धून न जमी होती। ऐसे ही आजाद की यादों को साझा करने के लिए मैने अपने पत्रकारिता के दौरान जगमोहन सिंह रावत के घर जाकर इन सारी जानकारियों को एकत्रितकर आपके लिए सहेजा है।इसमें कुछ जानकारियों आगे भी अपडेट की जाएगी। 


क्यों आए थे "आजाद" गढ़वाल: 
काकोरी कांड के बाद अंग्रेज आजाद को ढूंढ रहे थे। अंग्रेजों से छिपकर प्रशिक्षण लेकर आगे की रणनीति बनाने के लिए आजाद अपने साथियों के साथ दुगड्डा आ गए थे। कोटद्वार से दुगड्डा की दूरी करीब 19 किमी है। जबकि दुगड्डा से नाथूपुर की दूरी पांच किमी और आजाद पार्क की दूरी दो किमी है। इसी के पास दुगड्डा ब्लॉक मुख्यालय है। अब यह पूरा क्षेत्र लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत आता है।यह रिजर्व फारेस्ट क्षेत्र है। 

नाथूपुर के दो मंजिला मकान में रुके थे आजाद
नाथूपुर में जिस घर में आजाद और उनके साथी रुके थे। वह दो मंजिला लकड़ियों से बना घर आज भी वैसे ही है। भवानी सिंह के बेटे जगमोहन सिंह रावत अब उस घर की देख रेख करते हैं और उसी में रहते हैं।लेकिन सरकार की ओर से इस पर कोई पहल नहीं की गई है।

कीर्ती स्तंभ
दुगड्डा-धूमाकोर्ट मार्ग पर आज भी चंद्र शेहर आजाद का कीर्ती स्तंभ है, जो अब जर्जर हाल में है। लेकिन आजादी की गवाही देने वाले यह ऐतिहासिक धरोहरों का आज जरूरत है तो संरक्षण की।

स्मृति वृक्ष
जिस कौल के पेड़ पर आजाद ने अचूक निशाना लगाया था। आज भी वह जर्जर हाल में एक टिन शेड में आजाद पार्क में रखा गया है।लेकिन आखिर कितने दिन तक उसे हम बचा पाते हैं। 


नाथूपुर में ली थी आजाद ने शरण
नाथूपुर दुगड्डा के पास है। कोटद्वार तक रेल मार्ग था। आगे पैदल ही जाना था। नाथूपुर चारों और से जंगल से घिरा था। जहां किसी को भी आसानी से खोजना नामुकिन था।इसके साथ ही जंगल में निशानेबाजी के लिए सबसे अच्छा था। 


भवानी सिंह रावत 
भवानी सिंह उत्तराखंड के अकेले ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिन्होंने क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ में सम्मलित होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। वे संगठन के प्रधान सेनापति चंद्रशेखर आजाद के बलिदान तक उनके साथ रहे। लेकिन आज लोग उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते और न ही आने वाली पीड़ी को कुछ बता पाते हैं। 


राष्ट्रीय दिवस पर ही शहीदों की याद क्यों ?
कुछ दिन बाद पंद्रह अगस्त आने वाला है। जिसमें तमान सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा आजादी के वीर सपूतों को याद कर फिर उनकी तस्वीरें अगले साल के लिए रख दी जाएंगी। देहरादून परेड ग्राउंड और दिल्ली में भी जश्न के सरकारी बड़े बड़े इंतजाम होंगे। सफेद पोश भी अच्छा भाषण देकर चले जाएंगे। लेकिन देश के लिए निस्वार्थ बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों को शायद हम भूल रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो यू उनकी निशानियों को दीमक चट न करते। उनके कीर्ती स्तंभ धूमिल न होते, स्मृति वृक्ष अपनी बदहाली पर आंसू न बहाता।नाथूपुर का ऐतिहासिक घर बदहाल न होता, ऐसे ही तमान ऐतिहासिक स्थलों को सिर्फ राष्ट्रीय दिवसों पर ही याद न किया जाए।अपने गौरवपूर्ण इतिहास के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए सभी तैयार रहे। यूं सरकार से भी अधिक अपेक्षा लगाता कब तक ठीक है, जब तक तुमारे सपनों को स्मृति वृक्ष की तरह दीमक चट न कर जाएं.....


अगले अंक में फिर मिलेंगे एक नए ट्रैंवलॉग के साथ:
आपके सुझाव और सुधार सादर आमंत्रित हैं?

Friday 12 June 2020

देश का नामदेव स्थल ''कण्वाश्रम'' ही उपेक्षित

देश का नामदेव स्थल ''कण्वाश्रम'' ही उपेक्षित 
वरिष्ठ पत्रकार विजय भट्ट

कोटद्वार। महर्षि कण्व ऋषि की तपस्थली और चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम आखिर कब तक उपेक्षा का दंश झेलती रहेगी। कण्वाश्रम को कई बार राष्ट्रीय धरोहर बनाने की घोषणाएं हो चुकी हैं। लेकिन अभी तक जमीनी स्थर पर काम नहीं हो पाया है।  कण्वाश्रम में ही शकुंतला और दुष्यंत के तेजस्वी पुत्र भरत ने जन्म लिया। वहीं भरत जिनके नाम से देश का नाम भारत पड़ा। लेकिन देश को नाम देने वाले भरत की जन्म स्थली आज उपेक्षित पड़ी है। 
बताया जाता है कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू1955 में रूस यात्रा पर गए थे। उस दौरान उनके स्वागत में रूसी कलाकारों ने महाकवि कालिदास रचित 'अभिज्ञान शाकुंतलम' की नृत्य नाटिका प्रस्तुत की। एक रूसी व्यक्ति ने पं. नेहरू से कण्वाश्रम के बारे में जानना चाहा, लेकिन पंडित नेहरू को इस बारे में जानकारी न थी। वापस लौटते ही पं. नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद को कण्वाश्रम की खोज का दायित्व सौंपा।1956 में प्रधानमंत्री पं. नेहरू और उप्र के मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद के निर्देश पर तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी कोटद्वार पहुंचे और कण्वाश्रम में राजा भरत का स्मारक बनाया, जो आज भी मौजूद है। अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौर से और उत्तराखंड अलग राज्य बनने के बाद से आज तक भाजपा और कांग्रेस सरकारों की ओर से कई बड़ी घोषणाएं की गई। लेकिन कण्वाश्रम को आज तक कोई खास पहचान नहीं मिली। आज भी आने वाली पीड़ी को कण्वाश्रम के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। बसंत पंचमी पर हर साल कण्वाश्रम में तीन दिन के मेले का आयोजन होता है। इस दौरान कई बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री कार्यक्रम में जाकर कई घोषणाएं कर चुके हैं। वर्ष 2018 में पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने कण्वाश्रम को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की घोषणा की थी। कुछ समय पहले कोटद्वार का नाम कण्वनगरी करने की भी बात उत्तराखंड सरकार की ओर से की गई। कण्वाश्रम में झील निर्माण का कार्य भी शुरू किया गया, लेकिन योजना में अभी भी रुकावटें आ रही हैं। कण्वाश्रम एक ऐतिहासिक स्थल है, जिसका प्राचीन और समृद्ध इतिहास रहा है। महर्षि कण्व के काल में कण्वाश्रम शिक्षा का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। आज भी वहां पर एक संस्कृत महाविद्यालय संचालित होता है। लेकिन जिसमें छात्र संख्या बहुत कम है। कण्वाश्रम के पास ही कुछ साल पहले बड़ी मात्रा में बेसकीमती मूर्तियां बारिश के दौरान लोगों को मिली थी। करीब पांच साल पहले मैं कण्वाश्रम में डियर पार्क की और गया था। जहां एक पेड़ के नीचे खुले में एक बड़ी पत्थर की नाकाशीदार मूर्ति रखी गई थी। वन विभाग से इस बारे में संरक्षण की जानकारी मांगी पर उन्होंने भी इस बारे में कोई खास जानकारी नहीं दी। मूर्ति की फोटो मेरे पास है, लेकिन मूर्ति बताई जा रही है कि हरिद्वार की कोई संस्था ले गई। आज भी जमीन के अंदर कई मूर्तियां और एतिहासिक जानकारियों के बारे में प्रमाण मिल सकते हैं। कण्वाश्रम के विकास के लिए कई योजनाएं बनी , लेकिन कण्वाश्रम में पसरा अंधेरा राजनैतिक गलियारों तक ही सिमट कर रह गया। आजादी के बाद कण्वाश्रम की खोज तो हुई पर विकास के नाम पर केवल कोरी घोषणाएं। मालन नदी के तट पर बसे कण्वाश्रम जो प्राचीन काल में शिक्षा और समृद्धि का प्रतीक था आज अपनी पहचान का मोहताज बना हुआ है। कण्वाश्रम में पर्यटन और तीर्थाटन की असीम समभावानाएं है, लेकिन जरूरत है तो केवल पहल करने की।

''खाम स्टेट और अंग्रेजों के जमाने का कुंआ''

''खाम स्टेट और अंग्रेजों के जमाने का कुंआ'' 
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
कोटद्वार। गढ़वाल का प्रवेश द्वार और वर्तमान कोटद्वार-भाबर क्षेत्र 1900 के आसपास खाम स्टेट में आता था। भारत में उस दौरान अंग्रेजों का शासन था। कोटद्वार-भाबर क्षेत्र का अधिकांश भाग चारों और से जंगल से घिरा हुआ था, इस लिए इस क्षेत्र को खाम स्टेट कहा जाता था। कोटद्वार के सिद्धबली मंदिर के पास खाम स्टेट का मुख्यालय हुआ करता था। जिसका खंडर आज भी वहां मौजूद है। उसके ठीक नीचे ग्रास्टनगंज जिसे पुराना कोटद्वार कहते हैं, बसा हुआ था। बताया जाता है कि ग्रास्टनगंज किसी अंग्रेज के द्वारा बसाया गया नगर था। उसी के नाम पर इसका नाम ग्रास्टनगंज पड़ा। खाम क्षेत्र वर्तमान कोटद्वार सनेह क्षेत्र से लेकर भाबर तक का क्षेत्र था। भाबर के अंतिम छोर पर कुंभीखाल क्षेत्र वर्तमान में रिजर्व फॉरेस्ट क्षेत्र में हैं। जहां घना जंगल है। लेकिन खाम स्टेट के दौरान यहां लोग रहते थे। पांच साल पहले करीब जब हम खाम क्षेत्र के कुंभीखाल क्षेत्र में गए तो वहां के एक स्थानीय निवासी की मदद से हमें उस क्षेत्र की जानकारी मिली। जहां अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया एक कुंआ भी मिला। जो आज भी वैसे ही है। कुंआ उस समय क्षेत्र के लोगों की प्यास बुझाता था। साथ ही कुंए से कुछ दूरी पर ही कंडी मार्ग है। जो हरिद्वार से लेकर कोटद्वार और कालागढ़ होते हुए कुमाऊं के लिए प्रमुख मार्ग होता था। इसी मार्ग पर बैलगाड़ियों से आवाजाही होती थी। लोग अंग्रेजों के बनाए इस कुएं से पानी पीते थे। लेकिन अब यह क्षेत्र  लैंसडौन वन प्रभाग में आता है और अब यहां लोग नहीं रहते हैं, लेकिन कुआं आज भी मौजदू है। यह कुआं अब जंगली जानवरों के लिए मौत का कुंआ बन गया है। जिसमें कई जंगली जानवर गिरकर मर गए। कई लोग भी कुएं में आत्महत्या करने की बात सामने आ चुकी है। बाद में कंडी मार्ग भी बंद हो गया और, कुमाऊं और गढ़वाल की सांस्कृतिक दूरियां भी बढ़ गई। अग्रेंजों के जमाने में बना यह कुंआ आज भी मौजूद है। 
1901 में कोटद्वार को नगर का दर्जा मिला। तब यहां की आवादी कुल 396 थी। जिसके कारण सन 1921 में इसे फिर गांव घोषित किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नगर का काफी विकास हुआ। सन 1897 में कोटद्वार में रेलवे लाइन बन गई थी। जिससे यह दिल्ली और अन्य प्रमुख बड़े नगरों से जुड़ पाया। 1951 में कोटद्वार नगर पालिका की स्थापना हुई। इसी समय कोटद्वार खाम क्षेत्र को भी तहसील में विलय किया गया। कोटद्वार के शिक्षक और संस्कृति के जानकार पदमेश बुडाकोटी ने बताया कि खाम क्षेत्र का डीएफओ लेबल का अधिकारी कोटद्वार में बैठता था। जिसे खाम सुपरटेंडेंट कहां जाता था। खाम क्षेत्र का विलय होने के बाद नगर क्षेत्र लैंसडौन तहसील में आ गया और यह क्षेत्र सिविल में चला गया। बाद में पृथक कोटद्वार तहसील अस्तित्व में आई। कोटद्वार यूपी की सीमा से लगा क्षेत्र है, इसे गढ़वाल का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। लेकिन अपना समृद्ध इतिहास समेटे कोटद्वार क्षेत्र आज विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गया। आज खाम क्षेत्र के बारे में बहुत कम लोगों को ही जानकारी है। खाम क्षेत्र के लिखित इस्तावेज वन विभाग के पास हैं, या नहीं। कोई नया अधिकारी इस बारे में जानकारी देगा या नहीं। जानकारी कोटद्वार के पुराने लोगों से पूछताछ और कुछ पुराने दस्तावेजों पर आधारित है।इसमें सुधार की गुंजाइस है। किसी को कोई जानकारी हो या सुधार करवाना है तो करवा सकता है। आपके सुझाव सादर आमंत्रित हैं?