Saturday 17 April 2021

"कालीमठ मंदिर में खून की नदी देख दहल गया था गबर सिंह का दिल"विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकाररुद्रप्रयाग जिले के केदारखंड में मां मंदाकिनी के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में कुछ समय पूर्व तक मन्नतें पूरी होने पर लोग बड़ी संख्या में जानवरों की बलि देते थे। जिसमें बकरी और भैंसा शामिल था। मंदिर के पास प्रतिदिन बेजुबान जानवरों की खून की नदी बहती थी और खून पास बह रही मंदाकिनी नदी में मिल जाता था। अस्सी के दशक में यह देख स्थानीय निवासी गबर सिंह राणा का मन विचलित हुआ और उन्होंने मंदिर में सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध किया। गबर सिंह राणा के बलि प्रथा के विरोध करने पर उन्हें लोगों का भारी आक्रोश झेलना पड़ा। यहां तक कई बार लोगों ने उनके साथ मारपीट भी की उनका माइक तोड़ डाला। उन पर मुकदमा भी किया। कई साल तक उनपर हाईकोर्ट में वाद भी चला। लेकिन उन्होंने बलिप्रथा का विरोध करना नहीं छोड़ा। अस्सी वर्षीय गब्बर सिंह राणा बताते हैं कि करीब अस्सी के दशक में उन्होंने कालीमठ मंदिर से बलि प्रथा का विरोध शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने पौड़ी के बूंखाल और अन्य मंदिरों में भी जाकर इसका विरोध किया। एक बार पशु बलि के विरोध में उन्होंने खुद की गर्दन ही आगे कर दी थी। आक्रोशित लोगों ने उनकी गर्दन पर ही हथियार रख लिया था। लेकिन उनकी मेहतन रंग लाई और धीरे-धीरे सरकार ने बलि प्रथा को मंदिरों से बंद कर दिया। आज बूंखाल और कालीमंठ में बलि प्रथा पर रोक है। देवभूमि में जहां लोग आस्था के नाम पर कुछ भी सहन नहीं करते हैं, ऐसे में करीब चालीस साल पहले कालीमठ मंदिर में बलि प्रथा के खिलाफ गबर सिंह राणा ने सबसे पहले आवाज उठाई। गब्बर सिंह बताते हैं कि मंदिर में भैंसे काटने के बाद वहां भारी मात्रा में खून जमा हो जाता था।साथ ही पशुओं के अवशेष भी आसपास भी डाले रहते थे। मंदिर के पास खून की बदबू से बहुत परेशानी होती थी। बकरी का मांस तो लोग खा जाते थे, लेकिन भैंस का मांस मारने के बाद किसी काम नहीं आता था। इसको लेकर उन्होंने कालीमठ मंदिर से ही सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध शुरू किया। शुरूवाती दौर में लोगों ने इसका भारी विरोध किया। उनका यह अभियान आजीवन चलता रहा। अब वह अपने नाम के आगे ब्रती बाबा लगाते हैं। या सत्यब्रती कहते हैं। उन्होंने कालीमठ के पास ही अपना आश्रम भी बना रहा है। कालीमठ के दो किमी पहले ही बेडुला उनका गांव है। उत्तराखंड में बलि प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले गबर सिंह राणा आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। इस सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह को कोई सम्मान आज तक नहीं मिल पाया।कुछ समय पूर्व सड़क हादसे में उनके पांच में गभीर चोट आ गई थी। जिसके बाद उनका पांच भी काटना पड़ा। लेकिन देवभूमि में निरजीव जानवरों खासकर जीनका मारने के बाद कोई उपयोग नहीं है, के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह की पहल सराहनीय है। आज कालीमठ मंदिर में शुद्ध रूप से पूजा पाठ होता है। लोगों की आस्था आज भी उतनी ही है, लेकिन मंदिर में अब बलिप्रथा पूर्ण रूप से बंद हो गई है। किसी समय मंदिर में एक ही दिन में कई जानवरों की बलि दी जाती थी।सिद्धपीठ और रहस्यमयी कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ हाईवे पर गुप्तकाशी से पहले कालीमठ के लिए सड़क कट जाती है। करीब बीस किमी आगे मंदाकिनी के किनारे चलते हुए सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर है। पहले यहां बलि प्रथा दी जाती थी लेकिन अब इसमें नवरात्रों में विशेष पूजा होती है। यहीं से कालीशिल्ला के लिए भी रास्ता निकलता है। कालीमठ में तीन अलग-अलग भव्य मंदिर है जहां मां काली के साथ माता लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा की जाती है। कालीमठ में सुंदर नकाशीदार मंदिर और स्थापत्य कला के दर्शन भी होते हैं। पास ही मंदाकिनी नदी बह रही है। कालीमठ मंदिर के बारे में कई रहस्यमयी कथाए भी प्रचलित हैं। माना जाता है कि मां काली इस कुंड में समाई हुई हैं। तब से ही इस स्थान पर मां काली की पूजा की जाती है। बाद में आदि शंकराचार्य ने कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना की थी। मंदिर के नजदीक ही कालीशीला भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी शीला पर माता काली ने दानव रक्तबीज का वध किया था।--------------------------------------फोटो कालीमठ मंदिर(फाइल फोटो)फोटो बलि प्रथा के विरोधी गब्बर सिंह

कालीमठ मंदिर में खून की नदी देख दहल गया था गबर सिंह का दिल"
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार

रुद्रप्रयाग जिले के केदारखंड में मां मंदाकिनी के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में  कुछ समय पूर्व तक मन्नतें पूरी होने पर लोग बड़ी संख्या में जानवरों की बलि देते थे। जिसमें बकरी और भैंसा शामिल था। मंदिर के पास प्रतिदिन बेजुबान जानवरों की खून की नदी बहती थी और खून पास बह रही मंदाकिनी नदी में मिल जाता था। अस्सी के दशक में यह देख स्थानीय निवासी गबर सिंह राणा का मन विचलित हुआ और उन्होंने मंदिर में सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध किया। गबर सिंह राणा के बलि प्रथा के विरोध करने पर उन्हें लोगों का भारी आक्रोश झेलना पड़ा। यहां तक कई बार लोगों ने उनके साथ मारपीट भी की उनका माइक तोड़ डाला। उन पर मुकदमा भी किया। कई साल तक उनपर हाईकोर्ट में वाद भी चला। लेकिन उन्होंने बलिप्रथा का विरोध करना नहीं छोड़ा। अस्सी वर्षीय गब्बर सिंह राणा बताते हैं कि करीब अस्सी के दशक में उन्होंने कालीमठ मंदिर से बलि प्रथा का विरोध शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने पौड़ी के बूंखाल और अन्य मंदिरों में भी जाकर इसका विरोध किया। एक बार पशु बलि के विरोध में उन्होंने खुद की गर्दन ही आगे कर दी थी। आक्रोशित लोगों ने उनकी गर्दन पर ही हथियार रख लिया था। लेकिन उनकी मेहतन रंग लाई और धीरे-धीरे सरकार ने बलि प्रथा को मंदिरों से बंद कर दिया। आज बूंखाल और कालीमंठ में बलि प्रथा पर रोक है। 
देवभूमि में जहां लोग आस्था के नाम पर कुछ भी सहन नहीं करते हैं, ऐसे में करीब चालीस साल पहले कालीमठ मंदिर में बलि प्रथा के खिलाफ गबर सिंह राणा ने सबसे पहले आवाज उठाई। गब्बर सिंह बताते हैं कि मंदिर में भैंसे काटने के बाद वहां भारी मात्रा में खून जमा हो जाता था।साथ ही पशुओं के अवशेष भी आसपास भी डाले रहते थे। मंदिर के पास खून की बदबू से बहुत परेशानी होती थी। बकरी का मांस तो लोग खा जाते थे, लेकिन भैंस का मांस मारने के बाद किसी काम नहीं आता था। इसको लेकर उन्होंने कालीमठ मंदिर से ही सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध शुरू किया। शुरूवाती दौर में लोगों ने इसका भारी विरोध किया।  उनका यह अभियान आजीवन चलता रहा। अब वह अपने नाम के आगे ब्रती बाबा लगाते हैं। या सत्यब्रती कहते हैं। उन्होंने कालीमठ के पास ही अपना आश्रम भी बना रहा है। कालीमठ के दो किमी पहले ही बेडुला उनका गांव है। उत्तराखंड में बलि प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले गबर सिंह राणा आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। इस सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह को कोई सम्मान आज तक नहीं मिल पाया।कुछ समय पूर्व सड़क हादसे में उनके पांच में गभीर चोट आ गई थी। जिसके बाद उनका पांच भी काटना पड़ा। लेकिन देवभूमि में निरजीव जानवरों खासकर जीनका मारने के बाद कोई उपयोग नहीं है, के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह की पहल सराहनीय है। आज कालीमठ मंदिर में शुद्ध रूप से पूजा पाठ होता है। लोगों की आस्था आज भी उतनी ही है, लेकिन मंदिर में अब बलिप्रथा पूर्ण रूप से बंद हो गई है। किसी समय मंदिर में एक ही दिन में कई जानवरों की बलि दी जाती थी।

सिद्धपीठ और रहस्यमयी कालीमठ मंदिर 
रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ हाईवे पर गुप्तकाशी से पहले कालीमठ के लिए सड़क कट जाती है। करीब बीस किमी आगे मंदाकिनी के किनारे चलते हुए सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर है। पहले यहां बलि प्रथा दी जाती थी लेकिन अब इसमें नवरात्रों में विशेष पूजा होती है। यहीं से कालीशिल्ला के लिए भी रास्ता निकलता है। कालीमठ में तीन अलग-अलग भव्य मंदिर है जहां मां काली के साथ माता लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा की जाती है। कालीमठ में सुंदर नकाशीदार मंदिर और स्थापत्य कला के दर्शन भी होते हैं। पास ही मंदाकिनी नदी बह रही है। कालीमठ मंदिर के बारे में कई रहस्यमयी कथाए भी प्रचलित हैं। माना जाता है कि मां काली इस कुंड में समाई हुई हैं। तब से ही इस स्थान पर मां काली की पूजा की जाती है। बाद में आदि शंकराचार्य ने कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना की थी। मंदिर के नजदीक ही कालीशीला भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी शीला पर माता काली ने दानव रक्तबीज का वध किया था।



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फोटो कालीमठ मंदिर(फाइल फोटो)
फोटो बलि प्रथा के विरोधी गब्बर सिंह