Friday 12 June 2020

देश का नामदेव स्थल ''कण्वाश्रम'' ही उपेक्षित

देश का नामदेव स्थल ''कण्वाश्रम'' ही उपेक्षित 
वरिष्ठ पत्रकार विजय भट्ट

कोटद्वार। महर्षि कण्व ऋषि की तपस्थली और चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम आखिर कब तक उपेक्षा का दंश झेलती रहेगी। कण्वाश्रम को कई बार राष्ट्रीय धरोहर बनाने की घोषणाएं हो चुकी हैं। लेकिन अभी तक जमीनी स्थर पर काम नहीं हो पाया है।  कण्वाश्रम में ही शकुंतला और दुष्यंत के तेजस्वी पुत्र भरत ने जन्म लिया। वहीं भरत जिनके नाम से देश का नाम भारत पड़ा। लेकिन देश को नाम देने वाले भरत की जन्म स्थली आज उपेक्षित पड़ी है। 
बताया जाता है कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू1955 में रूस यात्रा पर गए थे। उस दौरान उनके स्वागत में रूसी कलाकारों ने महाकवि कालिदास रचित 'अभिज्ञान शाकुंतलम' की नृत्य नाटिका प्रस्तुत की। एक रूसी व्यक्ति ने पं. नेहरू से कण्वाश्रम के बारे में जानना चाहा, लेकिन पंडित नेहरू को इस बारे में जानकारी न थी। वापस लौटते ही पं. नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद को कण्वाश्रम की खोज का दायित्व सौंपा।1956 में प्रधानमंत्री पं. नेहरू और उप्र के मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद के निर्देश पर तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी कोटद्वार पहुंचे और कण्वाश्रम में राजा भरत का स्मारक बनाया, जो आज भी मौजूद है। अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौर से और उत्तराखंड अलग राज्य बनने के बाद से आज तक भाजपा और कांग्रेस सरकारों की ओर से कई बड़ी घोषणाएं की गई। लेकिन कण्वाश्रम को आज तक कोई खास पहचान नहीं मिली। आज भी आने वाली पीड़ी को कण्वाश्रम के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। बसंत पंचमी पर हर साल कण्वाश्रम में तीन दिन के मेले का आयोजन होता है। इस दौरान कई बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री कार्यक्रम में जाकर कई घोषणाएं कर चुके हैं। वर्ष 2018 में पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने कण्वाश्रम को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की घोषणा की थी। कुछ समय पहले कोटद्वार का नाम कण्वनगरी करने की भी बात उत्तराखंड सरकार की ओर से की गई। कण्वाश्रम में झील निर्माण का कार्य भी शुरू किया गया, लेकिन योजना में अभी भी रुकावटें आ रही हैं। कण्वाश्रम एक ऐतिहासिक स्थल है, जिसका प्राचीन और समृद्ध इतिहास रहा है। महर्षि कण्व के काल में कण्वाश्रम शिक्षा का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। आज भी वहां पर एक संस्कृत महाविद्यालय संचालित होता है। लेकिन जिसमें छात्र संख्या बहुत कम है। कण्वाश्रम के पास ही कुछ साल पहले बड़ी मात्रा में बेसकीमती मूर्तियां बारिश के दौरान लोगों को मिली थी। करीब पांच साल पहले मैं कण्वाश्रम में डियर पार्क की और गया था। जहां एक पेड़ के नीचे खुले में एक बड़ी पत्थर की नाकाशीदार मूर्ति रखी गई थी। वन विभाग से इस बारे में संरक्षण की जानकारी मांगी पर उन्होंने भी इस बारे में कोई खास जानकारी नहीं दी। मूर्ति की फोटो मेरे पास है, लेकिन मूर्ति बताई जा रही है कि हरिद्वार की कोई संस्था ले गई। आज भी जमीन के अंदर कई मूर्तियां और एतिहासिक जानकारियों के बारे में प्रमाण मिल सकते हैं। कण्वाश्रम के विकास के लिए कई योजनाएं बनी , लेकिन कण्वाश्रम में पसरा अंधेरा राजनैतिक गलियारों तक ही सिमट कर रह गया। आजादी के बाद कण्वाश्रम की खोज तो हुई पर विकास के नाम पर केवल कोरी घोषणाएं। मालन नदी के तट पर बसे कण्वाश्रम जो प्राचीन काल में शिक्षा और समृद्धि का प्रतीक था आज अपनी पहचान का मोहताज बना हुआ है। कण्वाश्रम में पर्यटन और तीर्थाटन की असीम समभावानाएं है, लेकिन जरूरत है तो केवल पहल करने की।

''खाम स्टेट और अंग्रेजों के जमाने का कुंआ''

''खाम स्टेट और अंग्रेजों के जमाने का कुंआ'' 
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
कोटद्वार। गढ़वाल का प्रवेश द्वार और वर्तमान कोटद्वार-भाबर क्षेत्र 1900 के आसपास खाम स्टेट में आता था। भारत में उस दौरान अंग्रेजों का शासन था। कोटद्वार-भाबर क्षेत्र का अधिकांश भाग चारों और से जंगल से घिरा हुआ था, इस लिए इस क्षेत्र को खाम स्टेट कहा जाता था। कोटद्वार के सिद्धबली मंदिर के पास खाम स्टेट का मुख्यालय हुआ करता था। जिसका खंडर आज भी वहां मौजूद है। उसके ठीक नीचे ग्रास्टनगंज जिसे पुराना कोटद्वार कहते हैं, बसा हुआ था। बताया जाता है कि ग्रास्टनगंज किसी अंग्रेज के द्वारा बसाया गया नगर था। उसी के नाम पर इसका नाम ग्रास्टनगंज पड़ा। खाम क्षेत्र वर्तमान कोटद्वार सनेह क्षेत्र से लेकर भाबर तक का क्षेत्र था। भाबर के अंतिम छोर पर कुंभीखाल क्षेत्र वर्तमान में रिजर्व फॉरेस्ट क्षेत्र में हैं। जहां घना जंगल है। लेकिन खाम स्टेट के दौरान यहां लोग रहते थे। पांच साल पहले करीब जब हम खाम क्षेत्र के कुंभीखाल क्षेत्र में गए तो वहां के एक स्थानीय निवासी की मदद से हमें उस क्षेत्र की जानकारी मिली। जहां अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया एक कुंआ भी मिला। जो आज भी वैसे ही है। कुंआ उस समय क्षेत्र के लोगों की प्यास बुझाता था। साथ ही कुंए से कुछ दूरी पर ही कंडी मार्ग है। जो हरिद्वार से लेकर कोटद्वार और कालागढ़ होते हुए कुमाऊं के लिए प्रमुख मार्ग होता था। इसी मार्ग पर बैलगाड़ियों से आवाजाही होती थी। लोग अंग्रेजों के बनाए इस कुएं से पानी पीते थे। लेकिन अब यह क्षेत्र  लैंसडौन वन प्रभाग में आता है और अब यहां लोग नहीं रहते हैं, लेकिन कुआं आज भी मौजदू है। यह कुआं अब जंगली जानवरों के लिए मौत का कुंआ बन गया है। जिसमें कई जंगली जानवर गिरकर मर गए। कई लोग भी कुएं में आत्महत्या करने की बात सामने आ चुकी है। बाद में कंडी मार्ग भी बंद हो गया और, कुमाऊं और गढ़वाल की सांस्कृतिक दूरियां भी बढ़ गई। अग्रेंजों के जमाने में बना यह कुंआ आज भी मौजूद है। 
1901 में कोटद्वार को नगर का दर्जा मिला। तब यहां की आवादी कुल 396 थी। जिसके कारण सन 1921 में इसे फिर गांव घोषित किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नगर का काफी विकास हुआ। सन 1897 में कोटद्वार में रेलवे लाइन बन गई थी। जिससे यह दिल्ली और अन्य प्रमुख बड़े नगरों से जुड़ पाया। 1951 में कोटद्वार नगर पालिका की स्थापना हुई। इसी समय कोटद्वार खाम क्षेत्र को भी तहसील में विलय किया गया। कोटद्वार के शिक्षक और संस्कृति के जानकार पदमेश बुडाकोटी ने बताया कि खाम क्षेत्र का डीएफओ लेबल का अधिकारी कोटद्वार में बैठता था। जिसे खाम सुपरटेंडेंट कहां जाता था। खाम क्षेत्र का विलय होने के बाद नगर क्षेत्र लैंसडौन तहसील में आ गया और यह क्षेत्र सिविल में चला गया। बाद में पृथक कोटद्वार तहसील अस्तित्व में आई। कोटद्वार यूपी की सीमा से लगा क्षेत्र है, इसे गढ़वाल का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। लेकिन अपना समृद्ध इतिहास समेटे कोटद्वार क्षेत्र आज विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गया। आज खाम क्षेत्र के बारे में बहुत कम लोगों को ही जानकारी है। खाम क्षेत्र के लिखित इस्तावेज वन विभाग के पास हैं, या नहीं। कोई नया अधिकारी इस बारे में जानकारी देगा या नहीं। जानकारी कोटद्वार के पुराने लोगों से पूछताछ और कुछ पुराने दस्तावेजों पर आधारित है।इसमें सुधार की गुंजाइस है। किसी को कोई जानकारी हो या सुधार करवाना है तो करवा सकता है। आपके सुझाव सादर आमंत्रित हैं?