Monday, 12 October 2020

गढ़वाल की अनोखी विलुप्त होती परंपरा "डड्वार"

गढ़वाल की अनोखी विलुप्त होती परंपरा "डड्वार" 

विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
देहरादून। गढ़वाल में डड्वार-बौरु से लेकर वस्तु विनिमय, सांकेतिक मुद्रा और अब कैश लेस तक का सफर। आज हम गढ़वाल की विलुप्त होती संस्कृति परंपरा माप तोल और सांकेतिक मुद्रा से पहले दी जाने वाली मजदूरी के बारे में जानेंगे।
डड्वार गढ़वाल में दिया जाने वाला एक प्रकार का पारितोषिक है। जिसे पहले तीन लोगों को दिया जाता था। इसमें ब्राह्मण, लोहार और औजी को दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म होती जा रही है। इसके बदले अब लोग पैसे दे रहे हैं। सालभर में दो फसलें होती हैं। जिसमें एक गेहूं- जौ और दूसरी धान की। इसमें प्रत्येक फसल पर डड्वार दिया जाता था। इसमें फसल पकने के बाद पहला हिस्सा देवता को दिया जाता था। जिसे पूज या न्यूज कहा जाता है। दूसरा हिस्सा पंडित का दिया जाता था। जो पंडित द्वारा साल भर किए गए कार्यों के बदले कम दक्षिणा की पूर्ति करता था। तीसरा हिस्सा लोहार का था। जो फसल काटने से पहले हथियार तेज करता था। इसे धान की फसल पर पांच सूप धान दिए जाते थे। जबकि गेहूं की फसल पर तीन पाथे जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। वहीं संग्राद दिवाली पर घर पर आकर ढोल बजाने शादी विवाह और शुभ कार्यों में काम करने की भरपाई करने के बदले औजी को भी डड्वार दिया जाता था।इसे लोहार से थोड़ कम दो सूप धान और दो पाथी जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। औजी को बाजगिरी समाज के नाम से जाना जाता है।इसका मुख्य व्यवसाय शादी विवाह और शुभ कार्यों में ढोल बजाना था।इसके साथ ही ये लोग गांव में सिलाई का काम भी करते थे। ड्डवार फसल का एक हिसा होता है जो प्रत्येक फसल पर दिया जाता है।

बौरु: बौरु भी डड्वार की ही तरह श्रम के बदले दिया जाने वाला पारितोषिक है। लेकिन यह डडवार से थोड़ा भिन्न है। यह किसी ग्रामीण महिला या पुरुष द्वारा खेतों में काम करने या अन्य काम करने के बदले दिया जाने वाली दैनिक मजदूरी है। जिसे अनाज के रुप में दिया जाता है। एक दिन के काम के बदले दो सूप धान दिया जाता था। जिसके बदले में अब तीन सौ रुपये दैनिक मजदूरी दी जा रही है। 

वस्तु विनिमय से सांकेतिक मुद्रा और केस लैस 
गढ़वाल में पहले जब सांकेतिक मुद्रा नहीं थी, तब श्रम के बदले डड्वार बौरु आदि दिया जाता था। वस्तु विनिमय भी उस समय किया जाता था। जौसे चौलाई,सोयाबीन के बदले नमक तेल लेना। इसके लिए गढ़वाल से ढाकर आते थे।जो वर्तमान कोटद्वार है। उसके बाद सांकेतिक मुद्रा आई। तब बस्तु के बदले पैसे दिए जाने लगे। लेकिन गांव में आज भी डड्वार और बौरु जौसी परंपरायें कुछ हद तक जिंदा है। उसके बाद आधुनिक भारत में कैस लेस में पेटीएम, गुगल एप, यूपीआई , ऑनलाइन मनी ट्रासफर जैसी व्यवस्थाएं आ गई है। जिसमें ऑनलाइन ही कहीं से भी सामान मंगवा सकते हैं।


प्राचीन समय में माप तोल
गढ़वाल में प्राचीन समय में माप तोल के पाथा, सेर आदि होते थे।दो सेर बराबर एक किलो। चार सेर बराबर एक पाथा। इसके बाद दोण, खार आदि आनाज मापने की विधि थी। खेत की माप मुट्ठी के हिसाब से होती थी। सोने चांदी और कीमती जेवरों की तोल रत्ती आदि में होती थी। समय की गणना ज्योतिष के घडी पल आदि से होती थी। दिन की पहर से और महीने की संक्रांति से। 


पवांण
बीज रोपाई के पहले दिन को पवांण कहते हैं। पवांण का अर्थ होता है पहला दिन।