Sunday, 29 June 2025

‘यादों का झरोखा कमल जोशी की खिड़की’विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकारगढ़वाल के प्रवेश द्वार, कोटद्वार की सबसे व्यस्त गलियों में से एक — गोखले मार्ग। यहाँ दोनों ओर फड़-सब्जी वालों की आवाजें, चहलकदमी और शाम के वक्त खचाखच भरी भीड़ हर पल जीवंतता बिखेरती है। इसी गलियों के बीचोंबीच, एक बड़ा सा भवन है जिसकी एक खिड़की सीधे गोखले मार्ग की ओर खुलती है। उस खिड़की से झंड़ाचौक, लैंसडौन घाटी और उस भीड़-भाड़ भरे शहर के जीवन के रंग दिखते हैं। यह वही खिड़की है जहां से प्रतिभाशाली फोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी शहर को देखते थे, अपने कैमरे के लेंस से पहाड़ की कहानियां कहते थे। उस खिड़की पर एक पोस्टर लगा रहता था एक ग्रामीण बालिका की तस्वीर। वह तस्वीर कमल जोशी ने खींची थी, जिसमें एक मासूम बच्ची की आंखों में पहाड़ की कड़वाहट और सपनों का उजाला दोनों झलकते हैं। उस तस्वीर के माध्यम से कमल की खिड़की केवल एक जगह नहीं, बल्कि एक दर्पण बन गई थी जो ग्रामीण जीवन की सच्चाई को शहर के बीचोंबीच लेकर आती थी। लेकिन अब वह खिड़की कम खुलती है। कमल जोशी के जाने के बाद जैसे उस खिड़की के परदे भी थम गए हों। कमल जोशी की फोटोग्राफी केवल तस्वीरें नहीं, बल्कि पहाड़ की मौन भाषा थी उसकी बोलती तस्वीरें। वे सिर्फ एक फोटोग्राफर नहीं थे, बल्कि एक संवेदनशील दृष्टा थे, जो कैमरे के माध्यम से उन अनकहे दर्दों, संघर्षों और खुशियों को दुनिया के सामने लाते थे जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। उनका जीवन एक लंबा सफर था कुमाऊं और गढ़वाल की दुर्गम घाटियों से होते हुए, जहां पैदल यात्राएं, कंधे पर पिठ्ठू, हाथ में कैमरा, उनकी दिनचर्या थी। उनकी तस्वीरों में न केवल पर्वतीय सौंदर्य था, बल्कि उस क्षेत्र के लोगों की आत्मा, उनकी लड़ाई, उनकी अकेलापन, और उनकी सांस्कृतिक विरासत की छवि भी थी।कमल जोशी की तस्वीरों में पहाड़ केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं था, बल्कि एक जीवंत कहानी थी। बर्फ से ढके गांव, अकेली महिलाएं, बच्चों की मासूम मुस्कान, बूढ़े कंधों पर बोझ, और एकांत में बसी पीड़ा हर तस्वीर कुछ कहती थी। वे कैमरे के जरिए ऐसी कहानियां कहते थे, जो शब्दों से कहीं अधिक गहराई लिए होती थीं। कुछ साल पहले उनकी आकस्मिक निधन ने उत्तराखंड को स्तब्ध कर दिया। कमल जोशी न केवल एक फोटोग्राफर थे, बल्कि एक दस्तावेजी रचनाकार, जिन्होंने पहाड़ की सच्चाई को अपनी संवेदनशीलता के साथ कैद किया। उनकी यादें, उनके तस्वीरें, और उनके यात्रा वृत्तांत “चल मेरे पिठ्ठू, दुनिया देखें” आज भी उस धरोहर की गवाही देते हैं जो उन्होंने छोड़ी।कमल जोशी अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी दृष्टि, उनकी संवेदनशीलता और उनकी कला हमेशा उत्तराखंड के आसमान में चमकती रहेगी, कभी किसी बूढ़े पहाड़ी की आँखों में, कभी किसी बच्चे की मुस्कान में, और कभी उन धुंधलाते रास्तों में जहाँ उनके पदचिन्ह आज भी जिंदा हैं। वे पहाड़ की आत्मा थे, जिन्हें उनके कैमरे ने अमर कर दिया।कमल जोशी एक ऐसा नाम है जिसने उत्तराखंड की धरती से उपजे सौंदर्य को कैमरे की नजर से देखा और उसे दुनिया के सामने लाने का बीड़ा उठाया। उनकी घुमक्कड़ी केवल सैर-सपाटे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैचारिक यात्रा है जो उन्हें ग्रामीण भारत के दिल की धड़कनों तक ले जाती है। विशेष रूप से उनकी आराकोट-असकोट यात्रा न केवल एक साहसिक अभियान थी, बल्कि ग्रामीण जीवन की सहजता, कठिनाइयों और संस्कृति को जानने-समझने का एक संजीदा प्रयास भी थी। कमल जोशी की फोटोग्राफी किसी प्रोफेशनल लेंस के पीछे छिपी तकनीक मात्र नहीं है, बल्कि उनके अनुभवों, यात्राओं और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। वे कैमरे के माध्यम से उन हिस्सों को पकड़ते हैं, जो आमतौर पर अनदेखे रह जाते हैं, जैसे पहाड़ी महिलाओं के चेहरे पर झलकता संघर्ष, ग्रामीण बच्चों की आंखों में छिपी जिज्ञासा, या किसी दूरस्थ गांव की धूलभरी पगडंडियों पर चलती ज़िंदगी। उनकी तस्वीरें एक मौन भाषा बोलती हैं, एक ऐसी भाषा जिसमें न प्रकृति चुप है और न ही मनुष्य। आराकोट से असकोट तक की यह पैदल यात्रा उत्तराखंड के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से की गई, जहां आज भी विकास की बयार धीरे चलती है। यह यात्रा न केवल भौगोलिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। कमल जोशी ने इस यात्रा के माध्यम से उन गांवों को देखा, जहां आज भी लोग पारंपरिक जीवनशैली में जीते हैं, जहां आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की सुविधा एक सपना है।कमल जोशी एक ऐसा नाम, एक ऐसा व्यक्तित्व थे, जिन्हें एक बार जो भी मिला, वह उन्हें कभी भुला नहीं पाया। उनके भीतर एक आकर्षण, एक अपनापन था, जो हर किसी को उनसे जोड़ देता था। उनकी मधुर स्मृतियां आज भी उनके प्रशंसकों के हृदय में जीवंत हैं। वे जहां भी जाते चाहे किसी छोटे से गांव की गलियों में या किसी चाय की दुकान पर लोग उनके सहज व्यवहार और सरल व्यक्तित्व के मुरीद बन जाते। कमल जोशी न सिर्फ एक संवेदनशील मनुष्य थे, बल्कि एक बेहतरीन छायाकार भी। उन्होंने हिमालय की गोद में बसे गांवों, वहां की जीवनशैली, पर्यावरण, वन्य जीव-जंतुओं और प्रकृति की अद्भुत छवियों को अपने कैमरे में बेहद संवेदनशीलता के साथ कैद किया। उनका कैमरा सिर्फ दृश्य नहीं, भावनाएं भी उतारता था। वर्ष 2014 की प्रसिद्ध नंदा राजजात यात्रा से लौटने के बाद, उन्होंने अपने अनुभवों को एक भावनात्मक यात्रा संस्मरण के रूप में सोशल मीडिया पर साझा किया, जिसका शीर्षक था ‘मेरी अनुष्का भी रहती है हिमालय के उस पार’। इस संस्मरण में एक ग्रामीण युवती की छवि को उन्होंने इतनी आत्मीयता और सौंदर्य के साथ उकेरा कि पाठक उस चरित्र से जुड़ाव महसूस करने लगे। यह रचना न केवल उनकी लेखनी की संवेदनशीलता को दर्शाती है, बल्कि ग्रामीण परिवेश की गहराई से की गई उनकी समझ का प्रमाण भी है। बाद में उनके संस्मरण, कविताएं और लेखों को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया, जो आज भी उनके चाहने वालों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

‘यादों का झरोखा कमल जोशी की खिड़की’
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
गढ़वाल के प्रवेश द्वार, कोटद्वार की सबसे व्यस्त गलियों में से एक — गोखले मार्ग। यहाँ दोनों ओर फड़-सब्जी वालों की आवाजें, चहलकदमी और शाम के वक्त खचाखच भरी भीड़ हर पल जीवंतता बिखेरती है। इसी गलियों के बीचोंबीच, एक बड़ा सा भवन है जिसकी एक खिड़की सीधे गोखले मार्ग की ओर खुलती है। उस खिड़की से झंड़ाचौक, लैंसडौन घाटी और उस भीड़-भाड़ भरे शहर के जीवन के रंग दिखते हैं। यह वही खिड़की है जहां से  प्रतिभाशाली फोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी शहर को देखते थे, अपने कैमरे के लेंस से पहाड़ की कहानियां कहते थे। उस खिड़की पर एक पोस्टर लगा रहता था एक ग्रामीण बालिका की तस्वीर। वह तस्वीर कमल जोशी ने खींची थी, जिसमें एक मासूम बच्ची की आंखों में पहाड़ की कड़वाहट और सपनों का उजाला दोनों झलकते हैं। उस तस्वीर के माध्यम से कमल की खिड़की केवल एक जगह नहीं, बल्कि एक दर्पण बन गई थी जो ग्रामीण जीवन की सच्चाई को शहर के बीचोंबीच लेकर आती थी। लेकिन अब वह खिड़की कम खुलती है। कमल जोशी के जाने के बाद जैसे उस खिड़की के परदे भी थम गए हों। 
कमल जोशी की फोटोग्राफी केवल तस्वीरें नहीं, बल्कि पहाड़ की मौन भाषा थी उसकी बोलती तस्वीरें। वे सिर्फ एक फोटोग्राफर नहीं थे, बल्कि एक संवेदनशील दृष्टा थे, जो कैमरे के माध्यम से उन अनकहे दर्दों, संघर्षों और खुशियों को दुनिया के सामने लाते थे जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। उनका जीवन एक लंबा सफर था कुमाऊं और गढ़वाल की दुर्गम घाटियों से होते हुए, जहां पैदल यात्राएं, कंधे पर पिठ्ठू, हाथ में कैमरा, उनकी दिनचर्या थी। उनकी तस्वीरों में न केवल पर्वतीय सौंदर्य था, बल्कि उस क्षेत्र के लोगों की आत्मा, उनकी लड़ाई, उनकी अकेलापन, और उनकी सांस्कृतिक विरासत की छवि भी थी।
कमल जोशी की तस्वीरों में पहाड़ केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं था, बल्कि एक जीवंत कहानी थी। बर्फ से ढके गांव, अकेली महिलाएं, बच्चों की मासूम मुस्कान, बूढ़े कंधों पर बोझ, और एकांत में बसी पीड़ा हर तस्वीर कुछ कहती थी। वे कैमरे के जरिए ऐसी कहानियां कहते थे, जो शब्दों से कहीं अधिक गहराई लिए होती थीं। कुछ साल पहले उनकी आकस्मिक निधन ने उत्तराखंड को स्तब्ध कर दिया। कमल जोशी न केवल एक फोटोग्राफर थे, बल्कि एक दस्तावेजी रचनाकार, जिन्होंने पहाड़ की सच्चाई को अपनी संवेदनशीलता के साथ कैद किया। उनकी यादें, उनके तस्वीरें, और उनके यात्रा वृत्तांत “चल मेरे पिठ्ठू, दुनिया देखें” आज भी उस धरोहर की गवाही देते हैं जो उन्होंने छोड़ी।
कमल जोशी अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी दृष्टि, उनकी संवेदनशीलता और उनकी कला हमेशा उत्तराखंड के आसमान में चमकती रहेगी, कभी किसी बूढ़े पहाड़ी की आँखों में, कभी किसी बच्चे की मुस्कान में, और कभी उन धुंधलाते रास्तों में जहाँ उनके पदचिन्ह आज भी जिंदा हैं। वे पहाड़ की आत्मा थे, जिन्हें उनके कैमरे ने अमर कर दिया।
कमल जोशी एक ऐसा नाम है जिसने उत्तराखंड की धरती से उपजे सौंदर्य को कैमरे की नजर से देखा और उसे दुनिया के सामने लाने का बीड़ा उठाया। उनकी घुमक्कड़ी केवल सैर-सपाटे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैचारिक यात्रा है जो उन्हें ग्रामीण भारत के दिल की धड़कनों तक ले जाती है। विशेष रूप से उनकी आराकोट-असकोट यात्रा न केवल एक साहसिक अभियान थी, बल्कि ग्रामीण जीवन की सहजता, कठिनाइयों और संस्कृति को जानने-समझने का एक संजीदा प्रयास भी थी। कमल जोशी की फोटोग्राफी किसी प्रोफेशनल लेंस के पीछे छिपी तकनीक मात्र नहीं है, बल्कि उनके अनुभवों, यात्राओं और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। वे कैमरे के माध्यम से उन हिस्सों को पकड़ते हैं, जो आमतौर पर अनदेखे रह जाते हैं, जैसे पहाड़ी महिलाओं के चेहरे पर झलकता संघर्ष, ग्रामीण बच्चों की आंखों में छिपी जिज्ञासा, या किसी दूरस्थ गांव की धूलभरी पगडंडियों पर चलती ज़िंदगी। उनकी तस्वीरें एक मौन भाषा बोलती हैं, एक ऐसी भाषा जिसमें न प्रकृति चुप है और न ही मनुष्य। आराकोट से असकोट तक की यह पैदल यात्रा उत्तराखंड के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से की गई, जहां आज भी विकास की बयार धीरे चलती है। यह यात्रा न केवल भौगोलिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। कमल जोशी ने इस यात्रा के माध्यम से उन गांवों को देखा, जहां आज भी लोग पारंपरिक जीवनशैली में जीते हैं, जहां आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की सुविधा एक सपना है।
कमल जोशी एक ऐसा नाम, एक ऐसा व्यक्तित्व थे, जिन्हें एक बार जो भी मिला, वह उन्हें कभी भुला नहीं पाया। उनके भीतर एक आकर्षण, एक अपनापन था, जो हर किसी को उनसे जोड़ देता था। उनकी मधुर स्मृतियां आज भी उनके प्रशंसकों के हृदय में जीवंत हैं। वे जहां भी जाते चाहे किसी छोटे से गांव की गलियों में या किसी चाय की दुकान पर लोग उनके सहज व्यवहार और सरल व्यक्तित्व के मुरीद बन जाते। कमल जोशी न सिर्फ एक संवेदनशील मनुष्य थे, बल्कि एक बेहतरीन छायाकार भी। उन्होंने हिमालय की गोद में बसे गांवों, वहां की जीवनशैली, पर्यावरण, वन्य जीव-जंतुओं और प्रकृति की अद्भुत छवियों को अपने कैमरे में बेहद संवेदनशीलता के साथ कैद किया। उनका कैमरा सिर्फ दृश्य नहीं, भावनाएं भी उतारता था। वर्ष 2014 की प्रसिद्ध नंदा राजजात यात्रा से लौटने के बाद, उन्होंने अपने अनुभवों को एक भावनात्मक यात्रा संस्मरण के रूप में सोशल मीडिया पर साझा किया, जिसका शीर्षक था ‘मेरी अनुष्का भी रहती है हिमालय के उस पार’। इस संस्मरण में एक ग्रामीण युवती की छवि को उन्होंने इतनी आत्मीयता और सौंदर्य के साथ उकेरा कि पाठक उस चरित्र से जुड़ाव महसूस करने लगे। यह रचना न केवल उनकी लेखनी की संवेदनशीलता को दर्शाती है, बल्कि ग्रामीण परिवेश की गहराई से की गई उनकी समझ का प्रमाण भी है। बाद में उनके संस्मरण, कविताएं और लेखों को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया, जो आज भी उनके चाहने वालों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

एशिया की सबसे बड़ी निजी परिवहन कंपनी ‘जीएमओयू’ पर संकटगढ़वाल मोटर ओनर्स यूनियन लिमिटेड जीएमओयू का नाम सुनते ही गढ़वाल की पहाड़ियों में दौड़ती बसों, घाटियों में गूंजते हॉर्न और सैकड़ों गांवों के जीवन में आए संजीवनी परिवर्तन की तस्वीर सामने आती है। 1943 में स्थापित यह संस्था केवल एक निजी परिवहन कंपनी नहीं, बल्कि गढ़वाल क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक विकास की रीढ़ रही है। दशकों तक जीएमओयू ने उन दूर-दराज के क्षेत्रों को जोड़ा, जहां सरकारी परिवहन की पहुँच सीमित या न के बराबर थी।गढ़वाल की पहाड़ी इलाकों में जीएमओयू की बसें जीवनदायिनी थीं, और इसे एशिया की सबसे बड़ी निजी परिवहन कंपनियों में गिना जाता था। लेकिन दुर्भाग्यवश, समय के साथ कुप्रबंधन, आंतरिक विवाद और भ्रष्टाचार ने इस गौरवशाली संस्था को कमजोर कर दिया। हाल ही में सामने आए 2.5 करोड़ रुपये के घपले ने जीएमओयू की विश्वसनीयता पर गहरा असर डाला है। इस मामले में कंपनी के पूर्व अध्यक्ष सहित नौ कर्मचारियों को गिरफ्तार किया गया है।इस आर्थिक अनियमितता ने जीएमओयू की वित्तीय स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है, जिसका सीधा असर सैकड़ों कर्मचारियों और लाखों यात्रियों के जीवन पर पड़ा है, जो इस सेवा पर पूरी तरह निर्भर थे। आज जीएमओयू बंद होने के कगार पर है, कई रूट बंद हो चुके हैं और बसें जंग खा रही हैं। यह केवल एक कंपनी की समस्या नहीं, बल्कि गढ़वाल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और जनजीवन के लिए गंभीर खतरे की घंटी है।ऐसे में राज्य सरकार की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। सरकार को तत्काल प्रभाव से जीएमओयू के पुनरुद्धार के लिए ठोस और पारदर्शी कदम उठाने होंगे। साथ ही, समाज और स्थानीय प्रतिनिधियों को भी इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी होगी, क्योंकि जीएमओयू केवल एक परिवहन सेवा नहीं, बल्कि गढ़वाल की सांस्कृतिक और आर्थिक आत्मा का प्रतीक है। संस्थान की सफलता मजबूत प्रबंधन, पारदर्शिता और जनसेवा की भावना पर निर्भर करती है। यदि समय रहते सुधार न किए गए, तो जीएमओयू जैसी ऐतिहासिक संस्था इतिहास के पन्नों में समा जाएगी। लेकिन अभी भी मौका है कि जीएमओयू को पुनर्जीवित कर गढ़वाल के पहाड़ों की जीवनरेखा के रूप में स्थापित किया जाए। बस ज़रूरत है सही नीयत और स्पष्ट नीति की। कोटद्वार में जीएमओयू का मुख्यालय है, इसके कर्मचारियों की ओर से ही इसको नुकसान पहुंचाने के गंभीर आरोप लगे हैं। जिसमें ढाई करोड़ रुपये के घपले की बात सामने आई है।

एशिया की सबसे बड़ी निजी परिवहन कंपनी ‘जीएमओयू’ पर संकट

गढ़वाल मोटर ओनर्स यूनियन लिमिटेड जीएमओयू का नाम सुनते ही गढ़वाल की पहाड़ियों में दौड़ती बसों, घाटियों में गूंजते हॉर्न और सैकड़ों गांवों के जीवन में आए संजीवनी परिवर्तन की तस्वीर सामने आती है। 1943 में स्थापित यह संस्था केवल एक निजी परिवहन कंपनी नहीं, बल्कि गढ़वाल क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक विकास की रीढ़ रही है। दशकों तक जीएमओयू ने उन दूर-दराज के क्षेत्रों को जोड़ा, जहां सरकारी परिवहन की पहुँच सीमित या न के बराबर थी।
गढ़वाल की पहाड़ी इलाकों में जीएमओयू की बसें जीवनदायिनी थीं, और इसे एशिया की सबसे बड़ी निजी परिवहन कंपनियों में गिना जाता था। लेकिन दुर्भाग्यवश, समय के साथ कुप्रबंधन, आंतरिक विवाद और भ्रष्टाचार ने इस गौरवशाली संस्था को कमजोर कर दिया। हाल ही में सामने आए 2.5 करोड़ रुपये के घपले ने जीएमओयू की विश्वसनीयता पर गहरा असर डाला है। इस मामले में कंपनी के पूर्व अध्यक्ष सहित नौ कर्मचारियों को गिरफ्तार किया गया है।
इस आर्थिक अनियमितता ने जीएमओयू की वित्तीय स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है, जिसका सीधा असर सैकड़ों कर्मचारियों और लाखों यात्रियों के जीवन पर पड़ा है, जो इस सेवा पर पूरी तरह निर्भर थे। आज जीएमओयू बंद होने के कगार पर है, कई रूट बंद हो चुके हैं और बसें जंग खा रही हैं। यह केवल एक कंपनी की समस्या नहीं, बल्कि गढ़वाल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और जनजीवन के लिए गंभीर खतरे की घंटी है।
ऐसे में राज्य सरकार की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। सरकार को तत्काल प्रभाव से जीएमओयू के पुनरुद्धार के लिए ठोस और पारदर्शी कदम उठाने होंगे। साथ ही, समाज और स्थानीय प्रतिनिधियों को भी इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी होगी, क्योंकि जीएमओयू केवल एक परिवहन सेवा नहीं, बल्कि गढ़वाल की सांस्कृतिक और आर्थिक आत्मा का प्रतीक है। संस्थान की सफलता मजबूत प्रबंधन, पारदर्शिता और जनसेवा की भावना पर निर्भर करती है। यदि समय रहते सुधार न किए गए, तो जीएमओयू जैसी ऐतिहासिक संस्था इतिहास के पन्नों में समा जाएगी। लेकिन अभी भी मौका है कि जीएमओयू को पुनर्जीवित कर गढ़वाल के पहाड़ों की जीवनरेखा के रूप में स्थापित किया जाए। बस ज़रूरत है सही नीयत और स्पष्ट नीति की। कोटद्वार में जीएमओयू का मुख्यालय है, इसके कर्मचारियों की ओर से ही इसको नुकसान पहुंचाने के गंभीर आरोप लगे हैं। जिसमें ढाई करोड़ रुपये के घपले की बात सामने आई है।

Thursday, 16 May 2024

जमीदार उमराव सिंह और सुल्ताना डाकू

जमीदार उमराव सिंह और सुल्ताना डाकू
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार देहरादून

बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में नजीबाबाद-कोटद्वार क्षेत्र में सुल्लताना डाकू का खौफ था। कोटद्वार से लेकर बिजनौर यूपी और कुमाऊं तक उसका राज चलता था। बताया जाता है कि सुल्लताना डाकू लूटने से पहले अपने आने की सूचना दे देता था, उसके बाद लूट करता था। लगभग चार सौ साल पूर्व नजीबाबाद में नवाब नाजीबुद्दोला ने किल्ला बनवाया था। बाद में इस पर सुलताना डाकू ने कब्जा कर लिया था। 
उस समय कोटद्वार-भाबर क्षेत्र में जमीदार उमराव सिंह थे। कोटद्वार निवासी आलोक रावत ने बताया उमराव सिंह उनके रिश्तेदार थे, उनकी मां इस बारे में जानकारी देती हैं। उन्होंने बताया कि सुल्लताना डाकू ने करीब 1915 से 20 के बीच कोटद्वार-भाबर के प्रसिद्ध जमीदार उमराव सिंह के घर चिट्ठी भेजी कि हम फलाने दिन उनके घर लूट करने आ रहे हैं। जिससे उमराव सिंह को काफी गुस्सा आया और उन्होंने इसकी सूचना पुलिस को देने की योजना बनाई। भाबर से करीब 20 किमी दूर कोटद्वार में पुलिस थाना था। 
उमराव सिंह ने अपने घर में काम करने वाले एक व्यक्ति को चिट्ठी दी कि इसे कोटद्वार थाने में दे आ। भाबर से कोटद्वार तक उन दिनों सड़क मार्ग नहीं था। लेकिन भाबर से होते हुए कोटद्वार सनेह से कुमाऊं तक कंडी रोड थी। कुछ लोग बताते हैं कि कंडी रोड हिमाचल से हरिद्वार और कोटद्वार से कुमाऊं होते हुए नेपाल तक जाती थी। जो वन विभाग के अंतर्गज आती थी। रोड पर बैल गाड़ी आदि चलती थी। जिसमें बांस काटकर ले जाया जाता था। उमराव सिंह के घर में काम करने वाला भी चिट्ठी लेकर कोटद्वार पुलिस के पास जा रहा था। उमराव सिंह ने पैदल जाने में अधिक समय लगने के कारण उसे अपना घोड़ा दिया था। ताकि वह जल्दी से पुलिस को सूचना दे दे। जैसे वह घर से कोटद्वार घोड़े पर जा रहा था दुर्गापुरी के पास नहर किनारे सुल्लताना डाकू और उसके साथी नहा रहे थे। डाकू और उसके साथी एक विशेष वेशभूषा में होते थे, जो पुलिस की वर्दी की तरह लगती थी। सुल्लताना ने घोड़े पर किसी को जाते देखा तो उसे रोका। उसने कहां कि घोड़ा तो किसी जागीरदार का लग रहा है, लेकिन इस पर नौकर कहां जा रहा है। घोड़े से जा रहे व्यक्ति ने भी सुल्लताना और उसके साथियों को पुलिस जानकर चिट्ठी दे दी और वहां से घर लौट गया। चिट्ठी पढ़ कर सुल्लताना भड़क गया। नौकर के घर पहुंचने पर उमराव सिंह ने पूछा कि चिट्ठी दे दी पुलिस को और तू जल्दी वापस आ गया। उसने बताया कि पुलिस वाले दुर्गापुरी के पास ही मिल गए थे। सुल्लताना भी वहां से सीधे उमराव सिंह के घर पहुंच गया और उन्हें गोली मार दी। अगर उमराव सिंह पुलिस को सूचना न देते और सुल्लताना का कहना मान देते तो शायद उनकी जान बच जाती। उमराव सिंह का कोटद्वार-भावर के विकास में बड़ा योगदान है। उन्होंने कई लोगों को भाबर क्षेत्र में बसाया। आज भी उनके नाम से भाबर क्षेत्र में उमरावपुर जगह है। कोटद्वार क्षेत्र में सुल्लताना की काफी दहसत थी। भाबर के खूनीबड़ गांव में एक बड़ का पेड़ था, लोकउक्ति है कि सुल्लताना लोगों को मारकर उस बड़ के पेड़ पर टांक देता था, जिससे उनकी डर लोगों में बनी रहे। इसी लिए उस गांव का नाम आज भी खूनीबड़ है। 
1923 में तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और आखिरकार 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद ज़िले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया। सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे। इस पूरे मिशन में कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी। नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुक़दमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया। उसे फांसी की सजा सुनाई गई। हल्द्वानी की जेल में 8 जून 1924 को जब सुल्ताना को फांसी पर लटकाया गया तो उसे अपने जीवन के तीस साल पूरे करने बाकी थे।
जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माय इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इंडियाज़ रॉबिन हुड’ में एक जगह लिखा है, ‘एक डाकू के तौर पर अपने पूरे करियर में सुल्ताना ने किसी ग़रीब आदमी से एक कौड़ी भी नहीं लूटी। सभी गरीबों के लिए उसके दिल में एक विशेष जगह थी। जब-जब उससे चंदा मांगा गया, उसने कभी इनकार नहीं किया, और छोटे दुकानदारों से उसने जब भी कुछ खरीदा उसने उस सामान का हमेशा दोगुना दाम चुकाया।’नजीबाबाद में जिस किल्ले पर सुल्लताना ने कब्जा किया था आज भी उसके खंडर है। उस किल्ले के बीच में एक तालाब था। बताया जाता है कि सुल्लताना ने अपना खजाना यहीं छुपाया था। बाद में वहां खुदाई भी हुई पर कुछ नहीं मिला। कुल लोगों का कहना है कि किल्ले के अंदर से सुल्लताना ने नजीबाबाद पुलिस थाने तक सुल्लताना ने सुरंग बनाई थी। जहां बंद होने पर भी वह आसानी से निकल जाता था और जरूरत पड़ने पर वहां से बंदूकें भी लूट लाता था। पुलिस भी उसे पकड़ नहीं पा रही थी। 1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया। उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म ‘सुल्ताना डाकू बनाई, जिसमें मुख्य किरदार दारा सिंह ने निभाया था।

कंडी रोड का मौत का कुंआ

vijay bhatt

कोटद्वार खाम क्षेत्र में अंग्रेजों के जमाने में कभी यह कुंआ कंडी मार्ग के राहगीरों की प्यास बुझाया करता था।भारत स्वतंत्र होने के बाद भारत में खाम क्षेत्र का तहसीलों में बिलय किया गया। नई तहसीले अस्तत्वि में आई और बाद में कंडी मार्ग का क्षेत्र लैंसडौन वन प्रभाग और टाइगर रर्जिव में आ गया। बफर जोन होने के चलते बाद में कंडी मार्ग भी बंद हो गया और।कुमाउऊं और गढ़ावाल की सांस्कृतिक दूरियां भी बढ़ गई। अग्रेंजों के जमाने में बना यह कुंआ आज भी मौजूद है। लेकिन अब कंडी में पर राहगीर नहीं।सह कुंआ अब जंगली जानवरों के लिए मौत का कुआ बनकर रह गया।इसके बाद न ही वन विभाग ने कुंआ बंद करने की हिमाकत की और न ही कोई अन्य। कई वन्य जीव इस कुंए में गिए कर अपनी जीवन लीला सामाप्त कर गए है। 

Saturday, 17 April 2021

"कालीमठ मंदिर में खून की नदी देख दहल गया था गबर सिंह का दिल"विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकाररुद्रप्रयाग जिले के केदारखंड में मां मंदाकिनी के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में कुछ समय पूर्व तक मन्नतें पूरी होने पर लोग बड़ी संख्या में जानवरों की बलि देते थे। जिसमें बकरी और भैंसा शामिल था। मंदिर के पास प्रतिदिन बेजुबान जानवरों की खून की नदी बहती थी और खून पास बह रही मंदाकिनी नदी में मिल जाता था। अस्सी के दशक में यह देख स्थानीय निवासी गबर सिंह राणा का मन विचलित हुआ और उन्होंने मंदिर में सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध किया। गबर सिंह राणा के बलि प्रथा के विरोध करने पर उन्हें लोगों का भारी आक्रोश झेलना पड़ा। यहां तक कई बार लोगों ने उनके साथ मारपीट भी की उनका माइक तोड़ डाला। उन पर मुकदमा भी किया। कई साल तक उनपर हाईकोर्ट में वाद भी चला। लेकिन उन्होंने बलिप्रथा का विरोध करना नहीं छोड़ा। अस्सी वर्षीय गब्बर सिंह राणा बताते हैं कि करीब अस्सी के दशक में उन्होंने कालीमठ मंदिर से बलि प्रथा का विरोध शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने पौड़ी के बूंखाल और अन्य मंदिरों में भी जाकर इसका विरोध किया। एक बार पशु बलि के विरोध में उन्होंने खुद की गर्दन ही आगे कर दी थी। आक्रोशित लोगों ने उनकी गर्दन पर ही हथियार रख लिया था। लेकिन उनकी मेहतन रंग लाई और धीरे-धीरे सरकार ने बलि प्रथा को मंदिरों से बंद कर दिया। आज बूंखाल और कालीमंठ में बलि प्रथा पर रोक है। देवभूमि में जहां लोग आस्था के नाम पर कुछ भी सहन नहीं करते हैं, ऐसे में करीब चालीस साल पहले कालीमठ मंदिर में बलि प्रथा के खिलाफ गबर सिंह राणा ने सबसे पहले आवाज उठाई। गब्बर सिंह बताते हैं कि मंदिर में भैंसे काटने के बाद वहां भारी मात्रा में खून जमा हो जाता था।साथ ही पशुओं के अवशेष भी आसपास भी डाले रहते थे। मंदिर के पास खून की बदबू से बहुत परेशानी होती थी। बकरी का मांस तो लोग खा जाते थे, लेकिन भैंस का मांस मारने के बाद किसी काम नहीं आता था। इसको लेकर उन्होंने कालीमठ मंदिर से ही सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध शुरू किया। शुरूवाती दौर में लोगों ने इसका भारी विरोध किया। उनका यह अभियान आजीवन चलता रहा। अब वह अपने नाम के आगे ब्रती बाबा लगाते हैं। या सत्यब्रती कहते हैं। उन्होंने कालीमठ के पास ही अपना आश्रम भी बना रहा है। कालीमठ के दो किमी पहले ही बेडुला उनका गांव है। उत्तराखंड में बलि प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले गबर सिंह राणा आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। इस सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह को कोई सम्मान आज तक नहीं मिल पाया।कुछ समय पूर्व सड़क हादसे में उनके पांच में गभीर चोट आ गई थी। जिसके बाद उनका पांच भी काटना पड़ा। लेकिन देवभूमि में निरजीव जानवरों खासकर जीनका मारने के बाद कोई उपयोग नहीं है, के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह की पहल सराहनीय है। आज कालीमठ मंदिर में शुद्ध रूप से पूजा पाठ होता है। लोगों की आस्था आज भी उतनी ही है, लेकिन मंदिर में अब बलिप्रथा पूर्ण रूप से बंद हो गई है। किसी समय मंदिर में एक ही दिन में कई जानवरों की बलि दी जाती थी।सिद्धपीठ और रहस्यमयी कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ हाईवे पर गुप्तकाशी से पहले कालीमठ के लिए सड़क कट जाती है। करीब बीस किमी आगे मंदाकिनी के किनारे चलते हुए सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर है। पहले यहां बलि प्रथा दी जाती थी लेकिन अब इसमें नवरात्रों में विशेष पूजा होती है। यहीं से कालीशिल्ला के लिए भी रास्ता निकलता है। कालीमठ में तीन अलग-अलग भव्य मंदिर है जहां मां काली के साथ माता लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा की जाती है। कालीमठ में सुंदर नकाशीदार मंदिर और स्थापत्य कला के दर्शन भी होते हैं। पास ही मंदाकिनी नदी बह रही है। कालीमठ मंदिर के बारे में कई रहस्यमयी कथाए भी प्रचलित हैं। माना जाता है कि मां काली इस कुंड में समाई हुई हैं। तब से ही इस स्थान पर मां काली की पूजा की जाती है। बाद में आदि शंकराचार्य ने कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना की थी। मंदिर के नजदीक ही कालीशीला भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी शीला पर माता काली ने दानव रक्तबीज का वध किया था।--------------------------------------फोटो कालीमठ मंदिर(फाइल फोटो)फोटो बलि प्रथा के विरोधी गब्बर सिंह

कालीमठ मंदिर में खून की नदी देख दहल गया था गबर सिंह का दिल"
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार

रुद्रप्रयाग जिले के केदारखंड में मां मंदाकिनी के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में  कुछ समय पूर्व तक मन्नतें पूरी होने पर लोग बड़ी संख्या में जानवरों की बलि देते थे। जिसमें बकरी और भैंसा शामिल था। मंदिर के पास प्रतिदिन बेजुबान जानवरों की खून की नदी बहती थी और खून पास बह रही मंदाकिनी नदी में मिल जाता था। अस्सी के दशक में यह देख स्थानीय निवासी गबर सिंह राणा का मन विचलित हुआ और उन्होंने मंदिर में सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध किया। गबर सिंह राणा के बलि प्रथा के विरोध करने पर उन्हें लोगों का भारी आक्रोश झेलना पड़ा। यहां तक कई बार लोगों ने उनके साथ मारपीट भी की उनका माइक तोड़ डाला। उन पर मुकदमा भी किया। कई साल तक उनपर हाईकोर्ट में वाद भी चला। लेकिन उन्होंने बलिप्रथा का विरोध करना नहीं छोड़ा। अस्सी वर्षीय गब्बर सिंह राणा बताते हैं कि करीब अस्सी के दशक में उन्होंने कालीमठ मंदिर से बलि प्रथा का विरोध शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने पौड़ी के बूंखाल और अन्य मंदिरों में भी जाकर इसका विरोध किया। एक बार पशु बलि के विरोध में उन्होंने खुद की गर्दन ही आगे कर दी थी। आक्रोशित लोगों ने उनकी गर्दन पर ही हथियार रख लिया था। लेकिन उनकी मेहतन रंग लाई और धीरे-धीरे सरकार ने बलि प्रथा को मंदिरों से बंद कर दिया। आज बूंखाल और कालीमंठ में बलि प्रथा पर रोक है। 
देवभूमि में जहां लोग आस्था के नाम पर कुछ भी सहन नहीं करते हैं, ऐसे में करीब चालीस साल पहले कालीमठ मंदिर में बलि प्रथा के खिलाफ गबर सिंह राणा ने सबसे पहले आवाज उठाई। गब्बर सिंह बताते हैं कि मंदिर में भैंसे काटने के बाद वहां भारी मात्रा में खून जमा हो जाता था।साथ ही पशुओं के अवशेष भी आसपास भी डाले रहते थे। मंदिर के पास खून की बदबू से बहुत परेशानी होती थी। बकरी का मांस तो लोग खा जाते थे, लेकिन भैंस का मांस मारने के बाद किसी काम नहीं आता था। इसको लेकर उन्होंने कालीमठ मंदिर से ही सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध शुरू किया। शुरूवाती दौर में लोगों ने इसका भारी विरोध किया।  उनका यह अभियान आजीवन चलता रहा। अब वह अपने नाम के आगे ब्रती बाबा लगाते हैं। या सत्यब्रती कहते हैं। उन्होंने कालीमठ के पास ही अपना आश्रम भी बना रहा है। कालीमठ के दो किमी पहले ही बेडुला उनका गांव है। उत्तराखंड में बलि प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले गबर सिंह राणा आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। इस सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह को कोई सम्मान आज तक नहीं मिल पाया।कुछ समय पूर्व सड़क हादसे में उनके पांच में गभीर चोट आ गई थी। जिसके बाद उनका पांच भी काटना पड़ा। लेकिन देवभूमि में निरजीव जानवरों खासकर जीनका मारने के बाद कोई उपयोग नहीं है, के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह की पहल सराहनीय है। आज कालीमठ मंदिर में शुद्ध रूप से पूजा पाठ होता है। लोगों की आस्था आज भी उतनी ही है, लेकिन मंदिर में अब बलिप्रथा पूर्ण रूप से बंद हो गई है। किसी समय मंदिर में एक ही दिन में कई जानवरों की बलि दी जाती थी।

सिद्धपीठ और रहस्यमयी कालीमठ मंदिर 
रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ हाईवे पर गुप्तकाशी से पहले कालीमठ के लिए सड़क कट जाती है। करीब बीस किमी आगे मंदाकिनी के किनारे चलते हुए सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर है। पहले यहां बलि प्रथा दी जाती थी लेकिन अब इसमें नवरात्रों में विशेष पूजा होती है। यहीं से कालीशिल्ला के लिए भी रास्ता निकलता है। कालीमठ में तीन अलग-अलग भव्य मंदिर है जहां मां काली के साथ माता लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा की जाती है। कालीमठ में सुंदर नकाशीदार मंदिर और स्थापत्य कला के दर्शन भी होते हैं। पास ही मंदाकिनी नदी बह रही है। कालीमठ मंदिर के बारे में कई रहस्यमयी कथाए भी प्रचलित हैं। माना जाता है कि मां काली इस कुंड में समाई हुई हैं। तब से ही इस स्थान पर मां काली की पूजा की जाती है। बाद में आदि शंकराचार्य ने कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना की थी। मंदिर के नजदीक ही कालीशीला भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी शीला पर माता काली ने दानव रक्तबीज का वध किया था।



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फोटो कालीमठ मंदिर(फाइल फोटो)
फोटो बलि प्रथा के विरोधी गब्बर सिंह

Monday, 12 October 2020

गढ़वाल की अनोखी विलुप्त होती परंपरा "डड्वार"

गढ़वाल की अनोखी विलुप्त होती परंपरा "डड्वार" 

विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
देहरादून। गढ़वाल में डड्वार-बौरु से लेकर वस्तु विनिमय, सांकेतिक मुद्रा और अब कैश लेस तक का सफर। आज हम गढ़वाल की विलुप्त होती संस्कृति परंपरा माप तोल और सांकेतिक मुद्रा से पहले दी जाने वाली मजदूरी के बारे में जानेंगे।
डड्वार गढ़वाल में दिया जाने वाला एक प्रकार का पारितोषिक है। जिसे पहले तीन लोगों को दिया जाता था। इसमें ब्राह्मण, लोहार और औजी को दिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म होती जा रही है। इसके बदले अब लोग पैसे दे रहे हैं। सालभर में दो फसलें होती हैं। जिसमें एक गेहूं- जौ और दूसरी धान की। इसमें प्रत्येक फसल पर डड्वार दिया जाता था। इसमें फसल पकने के बाद पहला हिस्सा देवता को दिया जाता था। जिसे पूज या न्यूज कहा जाता है। दूसरा हिस्सा पंडित का दिया जाता था। जो पंडित द्वारा साल भर किए गए कार्यों के बदले कम दक्षिणा की पूर्ति करता था। तीसरा हिस्सा लोहार का था। जो फसल काटने से पहले हथियार तेज करता था। इसे धान की फसल पर पांच सूप धान दिए जाते थे। जबकि गेहूं की फसल पर तीन पाथे जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। वहीं संग्राद दिवाली पर घर पर आकर ढोल बजाने शादी विवाह और शुभ कार्यों में काम करने की भरपाई करने के बदले औजी को भी डड्वार दिया जाता था।इसे लोहार से थोड़ कम दो सूप धान और दो पाथी जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। औजी को बाजगिरी समाज के नाम से जाना जाता है।इसका मुख्य व्यवसाय शादी विवाह और शुभ कार्यों में ढोल बजाना था।इसके साथ ही ये लोग गांव में सिलाई का काम भी करते थे। ड्डवार फसल का एक हिसा होता है जो प्रत्येक फसल पर दिया जाता है।

बौरु: बौरु भी डड्वार की ही तरह श्रम के बदले दिया जाने वाला पारितोषिक है। लेकिन यह डडवार से थोड़ा भिन्न है। यह किसी ग्रामीण महिला या पुरुष द्वारा खेतों में काम करने या अन्य काम करने के बदले दिया जाने वाली दैनिक मजदूरी है। जिसे अनाज के रुप में दिया जाता है। एक दिन के काम के बदले दो सूप धान दिया जाता था। जिसके बदले में अब तीन सौ रुपये दैनिक मजदूरी दी जा रही है। 

वस्तु विनिमय से सांकेतिक मुद्रा और केस लैस 
गढ़वाल में पहले जब सांकेतिक मुद्रा नहीं थी, तब श्रम के बदले डड्वार बौरु आदि दिया जाता था। वस्तु विनिमय भी उस समय किया जाता था। जौसे चौलाई,सोयाबीन के बदले नमक तेल लेना। इसके लिए गढ़वाल से ढाकर आते थे।जो वर्तमान कोटद्वार है। उसके बाद सांकेतिक मुद्रा आई। तब बस्तु के बदले पैसे दिए जाने लगे। लेकिन गांव में आज भी डड्वार और बौरु जौसी परंपरायें कुछ हद तक जिंदा है। उसके बाद आधुनिक भारत में कैस लेस में पेटीएम, गुगल एप, यूपीआई , ऑनलाइन मनी ट्रासफर जैसी व्यवस्थाएं आ गई है। जिसमें ऑनलाइन ही कहीं से भी सामान मंगवा सकते हैं।


प्राचीन समय में माप तोल
गढ़वाल में प्राचीन समय में माप तोल के पाथा, सेर आदि होते थे।दो सेर बराबर एक किलो। चार सेर बराबर एक पाथा। इसके बाद दोण, खार आदि आनाज मापने की विधि थी। खेत की माप मुट्ठी के हिसाब से होती थी। सोने चांदी और कीमती जेवरों की तोल रत्ती आदि में होती थी। समय की गणना ज्योतिष के घडी पल आदि से होती थी। दिन की पहर से और महीने की संक्रांति से। 


पवांण
बीज रोपाई के पहले दिन को पवांण कहते हैं। पवांण का अर्थ होता है पहला दिन।

Sunday, 16 August 2020

##वैश्विक महामारी कोरोना और इसके साइड इफेक्ट##

##वैश्विक महामारी कोरोना और इसके साइड इफेक्ट##

कोराना का पहला मामला दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत में सामने आया था। उसके बाद वायरस दुनिया के 168 देशों में अपने पैर पसार चुका है। कोरोना के बाद कई तरह की अफवाओं का बाजार भी गर्म रहा। भारत में पहला कोरोना का मामला जनवरी में केरल में आया। जिसमें चीन से लौटे एक छात्र में कोरोना की पुष्टि हुई। इसके बाद अन्य प्रांतों में भी इसके मरीजों की संख्या बढ़ने लगी। पहले दौरा में मुंबई में सबसे अधिक मामले सामने आए। उत्तराखंड में मार्च दूसरे सप्ताह में पहला कोरोना का मामला सामने आया।विदेश से लौटे एक ट्रेनी आईएफएस में इसकी पुष्टि हुई। जिसके बाद कोटद्वार में स्पेन से लौटे युवक रुड़की क्षेत्र में मामले आए। मार्च तीसरे सप्ताह में दिल्ली निजामुद्दीन मरकज मामले का पता लगा जिसके बाद कोरोना के मामले बढ़ने लगे। उत्तराखंड में भी 10 अप्रैल तक 34 मामले कोरोना के दर्ज किए गए। जिसमें से अधिकांश जमात से जुड़े होने की बात सामने आई। भारत में 10 अप्रैल तक कुल कोरोना के मामले 5865 हो चुके हैं, जिसमें से 169 लोगों की मौत हो चुकी है।जबकि 447 लोग ठीक हो चुके हैं। विश्व में 10 अप्रैल तक कुल 1569849 मामले सामने आ चुके हैं।जिसमें से 92191 लोगों की मौत हो चुकी है। अमेरिका में 16074 और चीन में 3335 लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन भारत के लिए अच्छी खबर यह है कि भारत में कोरोना की रफ्तार दर अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिसद ने दावा किया है कि भारत में कोरोना संक्रमण की दर तीन से पांच फीसदी है। भारत सरकार ने भी 24 मार्च को पूरे भारत में लॉकडान कर दिया। इसी बीच अमेरिका और चीन के बीच जुवानी जंग भी तेज हुई। हाल में ही भारत से क्लोरोक्वीन दवा मांगने को लेकर ट्रंप और मोदी की भी खूब चर्चा रही। बाद में अमेरिका ने भारत का धन्यवाद किया। वहीं दुनियां के सबसे शक्तिशाली देश को रूस की ओर से वैंटिलेटर देने का मामला भी खूब चर्चा में रहा। भारत में स्वास्थ्य व्यवस्थाएं और डॉक्टरों को पीपीटी किट पर भी चर्चा हुई। कुछ लोगों ने दावा किया कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत दुनियां में 192 वें स्थान पर है। जिसका पता कोरोना के दौरान चला। जबकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में नंबर दो पर रहने वाले ईटली की भी बुरी स्थिति है। वहीं इस वायरस को लेकर अमरीकन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑर हेल्थ ने अपने रिसर्च में पाया है कि ये थूक के कणों में वायरस 3-4 घंटों तक ज़िंदा रह सकते हैं और हवा में तैर सकते हैं. लेकिन अगर ये कण दरवाज़े का हैंडल, लिफ्ट बटन जैसे धातु जैसी सतहों पर ये 48 घंटों तक एक्टिव रह सकते हैं। इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका सोशल डिस्टेंसिंग है। लेकिन कुछ लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग पर भी सवाल खड़े किए। उन्होंने बताया कि सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। सामाजिक दूरी या शाररिक दूरी। वायर सबसे अधिक एक दूसरे के संपर्क में आने से फैला। अफवाओं का दौर भी इस कदर हावी रहा कि शराब पीने से वारसर खत्म होने की अफवाह ने खाड़ी देश में तीन सौ लोगों की जान ले ली। जबकि कोरोना के भय से कई लोगों ने आत्महत्या कर ली।


कोरोना संकट में भारत और विश्व 
कोरोना से पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। कोरोना की वजह से भारत के करीब 40 करोड़ लोगों के गरीबी रेखा से नीचे जाने का खतरा बढ़ गया है। भारत की अर्थव्यवस्था में सेवा के क्षेत्र का सबसे अधिक योगदान है। चिकित्सा को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्र बंद हैं। यूएन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कोविड19 की वजह से इस साल दूसरी तिमाही में वैश्विक स्तर पर 19.5 करोड़ लोगों की फुलटाइम जॉब जा सकती है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन आईएलओ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कोरोना महामारी को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे खराब वैश्विक संकट बताया है। भारत में असंगठित क्षेत्र देश की करीब 94 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है और अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 45 फ़ीसदी है. लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी है। क्योंकि रातोंरात हज़ारों लोगों का रोज़गार छिन गया. इसीलिए सरकार की ओर से जो पहले राहत पैकेज की घोषणा की गई वो ग़रीबों पर आर्थिक बोझ कम करने के उद्देश्य से हुई। लॉकडाउन में वहीं आईटी कंपनियों को बड़ा अवसर भी मिला है। ऑनलाइन शिक्षा का कारोबार और अन्य गतिविधियां बढ़ी हैं। कई स्कूलों ने मोबाइल एप , यूट्यूब, और वर्चुअल क्लास से पढ़ाई करवाई जा रही है। वहीं न्यूज पोर्टल और ई पेपर के पाठकों की संख्या भी बड़ी है। कई नए न्यूज पोर्टलों का जन्म हुआ। जबिक सोशल मीडिया का भी सबसे अधिक प्रयोग हुआ। मोबाइल फोन भी इस पूरे घटनाक्रम में किसी क्रांति से कम नहीं रहा।

कोरोना वायरस है क्या 
कोरोना का सामान्य अर्थ मुकुट होता है। कोरोना वायर के चारों और की परत चंद्रमा की परत की तरह दिखती है। चंद्रमा की बाहरी कक्षा के आकार की तरह होने के कारण इसे कोरोना नाम दिया गया है। कोरोनावायरस (Coronavirus)  कई प्रकार के विषाणुओं (वायरस) का एक समूह है जो स्तनधारियों और पक्षियों में रोग उत्पन्न करता है। यह आरएनए वायरस होते हैं। इनके कारण मानवों में श्वास तंत्र संक्रमण पैदा हो सकता है जिसकी गहनता हल्की सर्दी-जुकाम से लेकर अति गम्भीर मृत्यु तक हो सकती है। इनकी रोकथाम के लिए कोई टीका (वैक्सीन) या विषाणुरोधी (antiviral) अभी उपलब्ध नहीं है और उपचार के लिए प्राणी की अपने प्रतिरक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है। अभी तक रोगलक्षणों के आधार पर संक्रमण से लड़ते हुए शरीर की शक्ति बनी रहे इसकों ही ध्यान में रखा जा रहा है। इम्यून सिस्टम को ठीक रखने के लिए कई प्रकार के आयुर्वेदिक संसाधनों का प्रयोग अपने खाने में किया जा रहा है। साथ ही मलेरिया में कारगर दवा क्लोरोक्वीन का भी डॉक्टरी सलाह पर प्रयोग किया जा रहा है। वैज्ञानिकों ने इसकी संरचना पहचाने में कामयाबी तो पा ली है। लेकिन इसका मूल कहां और और इसकी दवा अभी तक नहीं बन पाई है। दुनियां के वैज्ञानिक इस पर कार्यकर रहे हैं।

कब क्या हुआ
01 जनवरी वुहान में मांस बाजार बंद
09 जनवरी को नोवेल कोरोना वायरस की पहचान हुई
13 जनवरी को चीन से पहला कोरोना केस बाहर
31 जनवरी भारत, इटली, ब्रिटेन, स्पेन में पहला मामला 
22-23 मार्च भारत में जनता कफर्यू
24 मार्च से भारत में डॉकडाउन 
08 अप्रैल ब्रिटिश पीएम की हालत गंभीर 
08 अप्रैल मरने वालों की संख्या 75000 पार
10 अप्रैल को मैने इस पर एक रिपोर्ट तैयार की